महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 48 श्लोक 62-73

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अष्‍टचत्‍वारिंश (48) अध्‍याय: उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: अष्‍टचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 62-73 का हिन्दी अनुवाद

‘दुर्योधन अपनी आंखों यह देखेगा कि उसकी सारी सेना (भयसे भागने लगी है ओर उस) को यह भी नहीं सूझता है कि किसी दिशाकी ओर जाऊं? कितने ही योद्धाओंके अङ्ग-प्रत्‍यङ्ग छिन्‍न-भिन्‍न हो गये हैं। समस्‍त सैनिक अचेत हो रहे हैं। हाथी, घोड़े तथा वीराग्रगण्‍य नरेश मार डाले गये हैं। सारे वाहन थक गये हैं और सभी योद्धा प्‍यास तथा भयसे पीड़ित हो रहे हैं। बहुतेरे सैनिक आर्त स्‍वरसे रो रहे हैं, कितने ही मारे गये और मारे जा रहे हैं। बहुतों के केश, अस्थि तथा कपालसमूह सब ओर बिखरे पड़े हैं। मानो विधाताका यथार्थ निश्र्चित विधान हो, इस प्रकार यह सब कुछ होकर ही रहेगा । यह सब देखकर उस समय मंदबुद्धि दुर्योधन के मनमें बड़ा पश्र्चाताप होगा । ‘जब धृतराष्‍ट्र दुर्योधन रथपर मेरे गाण्‍डीव धनुष-को, सारथि भगवान् श्रीकृष्‍ण को, उनके दिव्‍य पाञ्चजन्‍य शङ्खको, रथमें जुते हुए दिव्‍य घोड़ोंको, बाणोंसे भरे हुए दो अक्षय तूणीरोंको, मेरे देवदेत्‍त नामक शंखको और मुझको भी देखेगा, उस समय युद्धका परिणाम सोचकर उसे बड़ा संताप होगा । ‘जिस समय युद्धके लिये एकत्र हुए इन डाकुओंके दलोंका संहार करके प्रलयकाल के पश्र्चात् युगांतर उपस्थित करता हुआ मैं अग्नि के समान प्रज्‍वलित होकर कौरवोंके भस्‍म करने लगूंगा, उस समय पुत्रों‍सहित महाराज धृतराष्‍ट्र बड़ा संताप होगा । ‘सदा क्रोधके वशमें रहनेवाला अल्‍पबुद्धि मूढ़ दुर्योधन जब भाई, भृत्‍यगण तथा सेनाओंसहित ऐश्र्वर्यसे भ्रष्‍ट एवं आहर होकर कांपने लगेगा,उस समय सारा घमंड चूर-चूर हो जानेपर उसे (अपने कुकृत्‍योंके लिये) बड़ा पश्र्चात्ताप होगा । ‘एक दिनकी बात है, मैं पूर्वाह्णकालमें संध्‍या-वंदन एवं गायत्रीजप करके आचमन के पश्र्चात् बैठा हुआ था, उस समय एक ब्राह्मणने आकर एकांत में मुझसे यह मधुर वचन कहा-‘कुंतीवंदन! तुम्‍हें दुष्‍कर कर्म करना है। सव्‍यसाचिन्! तुम्‍हें अपने शत्रुओंके साथ युद्ध करना होगा। बोलो, क्‍या चाहते हो? इन्‍द्र उच्‍चैाश्रवा घोड़ेपर बैठकर वज्र हाथमें लिये तुम्‍हारे आगे-आगे समरभूमिमें शत्रुओंका नाश करते हुए चलें अथवा सुग्रीव आदि अश्‍वोंसे जुते हुए रथपर बैठकर वसुदेवनंदन भगवान् श्रीकृष्‍ण पीछेकी ओर से तुम्हारी रक्षा करें । ‘उस समय मैंने वज्रपाणि इन्‍द्रको छोड़कर इस युद्धमें भगवान् श्रीकृष्‍ण को अपना सहायक चुना था, इस प्रकार इन डाकुओं के वध के लिये मुझे श्रीकृष्‍ण मिल गये हैं। मालूम होता है, देवताओंने ही मेरे लिये ऐसी व्‍यवस्‍था कर रक्‍खी है । ‘भगवान् श्रीकृष्‍ण युद्ध न करके मनभी जिस पुरूष-की विजयका अभिनंदन करेंगे, वह अपने समस्‍त शत्रुओं को, भले ही वे इन्‍द्र आदि देवता ही क्‍यों न हों, पराजित कर देता है, फिर मनुष्‍य-शत्रु के लिये तो चिंता ही क्‍या है? ‘जो युद्ध के द्वारा अत्‍यंत शोर्यसम्‍पन्‍न तेजस्‍वी वसुदेव-नंदन भगवान् श्रीकृष्‍णको जीतने की इच्‍छा करता है, वह अनंत अपार जलनिधि समुद्को दोनों बांहो से तैरकर पार करना चाहता है । ‘जो अत्‍यंत विशाल प्रस्‍तराशिपूर्ण श्‍वेत कैलास-पर्वत-को हथेली मारकर विदीर्ण करना चाहता है, उस मनुष्‍य का नखसहित हाथ ही छिन्‍न–भिन्‍न हो जायगा। वह उस पर्वत का कुछ भी बिगाड़ नही कर सकता । ‘जो युद्धके द्वारा भगवान् श्रीकृष्‍णको जीतना चाहता है, वह प्रज्‍वलित अग्निको दोनों हाथों से बुझाने की चेष्‍टा करता है, चन्‍द्रमा और सूर्य की गति को रोकना चाहता है तथा हठपूर्वक देवताओंका अमृत हर लाने का प्रयत्‍न करता है ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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