महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 192 श्लोक 43-62

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द्विनवत्यधिकशततम (192) अध्‍याय: उद्योग पर्व (अम्बोपाख्‍यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: द्विनवत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 43-62 का हिन्दी अनुवाद

तब यक्षराज ने कहा- ‘स्थणाकर्ण को यहां बुला ले आओ। मैं उसे दण्‍ड दूंगा।’ यह बात उन्होंने बार-बार दुहरायी । राजन्! इस प्रकार बुलाने पर वह यक्ष कुबेर की सेवा में गया। महाराज! वह स्त्रीरूप धारण करने के कारण लज्जा में डुबा हुआ उनके सामने खड़ा हो गया । कुरूनन्दन! उसे इस रूप में देखकर कुबेर अत्यन्त कुपित हो उठे और शाप देते हुए बोले- ‘गुह्य को! इस पापी स्थूणाकर्ण का यह स्त्रीत्व अब ऐसा ही बना रहें’ ।तदनन्तर महात्मा यक्षराज ने उस यक्ष से कहा- ‘पापबुद्धि और पापाचारी यक्ष! तूने यक्षों का तिरस्कार करके यहां शिखण्‍डी को अपना पुरूषत्व दे दिया और उसका स्त्रीत्व ग्रहण कर लिया है। दुबुद्धे! तूने जो यह अव्याव‍हारिक कार्य कर डाला है, इसके कारण आज से तू स्त्री ही बना रहे और शिखण्‍डी पुरूषरूप में ही रह जाय’ । तब यक्षों ने अनुनय-विनय करके स्थूणाकर्ण के लिये कुबेर-को प्रसन्न किया और बारंबार आग्रहपूर्वक कहा- ‘भगवन्! इस शाप का अन्त कर दीजिये’ । तात! तब महात्मा यक्षराज ने स्थूणाकर्ण का अनुगमन करने वाले उन समस्त यक्षों से उस शाप का अन्त कर देने की इच्छा से इस प्रकार कहा- । ‘यक्षो! शिखण्‍डी के मारे जाने पर यह स्थूणाकर्ण यक्ष अपना पूर्णरूप फिर प्राप्त कर लेगा। अत: अब इसे निर्भय हो जाना चाहिये।’ ऐसा कहकर महामना भगवान् यक्षराज कुबेर उन यक्षों द्वारा अत्यन्त पूजित हो निमेषमात्र में ही अभीष्‍ट स्थान पर पहुंच जाने वाले अपने समस्त सेवकों के साथ वहां से चले गये । उस समय कुबेर का शाप पाकर स्थूणाकर्ण वहीं रहने लगा। शिखण्‍डी पूर्वनिश्चित समय पर उस निशाचन स्थूणाकर्ण के पास तुरंत आ गया । उसके निकट जाकर शिखण्‍डी ने कहा- ‘भगवन्! मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुं।’ तब स्थूणाकर्ण ने उससे बारंबार कहा- ‘मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं, बहुत प्रसन्न हुं’ राजकुमार शिखण्‍डी को सरलतापूर्वक आया हुआ देख उससे यक्ष ने अपना सारा वृत्तान्त ठीक-ठीक कह सूनाया । यक्ष ने कहा- राजकुमार! तुम्हारे लिये ही यक्षराज ने मुझे शाप दे दिया है; अत: अब जाओ, इच्छानुसार सारे जगत् में सूखपूर्वक विचरो । मैं इसे अपना पुरातन प्रारब्ध ही मानता हुं, जो कि तुम्हारा यहां से जाना और उसी समय यक्षराज कुबेर का यहां आकर दर्शन देना हुआ। अब इसे टाला नहीं जा सकता । भीष्‍म कहते हैं- भरतनन्दन! स्थूणाकर्ण यक्ष के ऐसा कहने पर शिखण्‍डी बडे़ हर्ष के साथ अपने नगर को लौट आया । पूर्ण मनोरथ होकर लौटे हुए अपने पुत्र शिखण्‍डी के साथ पाञ्चालराज द्रुपद गन्ध-माल्य आदि नाना प्रकार के बहुमूल्य उपचारों द्वारा देवताओं, ब्राह्मणों, चैत्य (पीपल आदि धार्मिक) वृक्षों तथा चौराहों का पूजन किया तथा बन्धु-बान्धवों-सहित उन्हें महान् हर्ष प्राप्त हुआ । महाराज! कुरूश्रेष्‍ठ! द्रुपद अपने पुत्र शिखण्‍डी को जो पहले कन्या रूप में उत्पन्न हुआ था, द्रोणाचार्य की सेवा में धनुर्वेद की शिक्षा के लिये सौंप दिया । इस प्रकार द्रुपदपुत्र शिखण्‍डी तथा धृष्‍टद्यूम्न ने तुम सब भाइयों के साथ ही ग्रहण, धारण, प्रयोग और प्रतीकार- इन चार पादों से युक्त वनुर्वेद का अध्‍ययन किया ।। मैंने द्रुपद के नगर में कुछ गुप्तचर नियुक्त कर दिये थे,जो गूंगे, अंधे और बहरे बनकर वहां रहते थे। वे ही यह सब समाचार मुझे ठीक-ठीक बताया करते थे ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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