महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 131 श्लोक 1-22

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एकत्रिंशदधिकशततम (131) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: एकत्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

भगवान श्रीकृष्ण का विश्वरूप दर्शन कराकर कौरव सभा से प्रस्थान

वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमजेय ! विदुरजी के ऐसा कहने पर शत्रु समूह का संहार करने वाले शक्तिशाली श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन से इस प्रकार कहा– दुर्बुद्धि दुर्योधन ! तू मोहवश जो मुझे अकेला मान रहा है और इसलिए मेरा तिरस्कार करके जो मुझे पकड़ना चाहता है, यह तेरा अज्ञान है। देख, सब पांडव यहीं हैं । अंधक और वृष्णिवंश के वीर भी यहाँ मौजूद हैं । आदित्यगण, रुद्रगण तथा महर्षियों सहित वसुगण भी यहाँ हैं। ऐसा कहकर विपक्षी वीरों का विनाश करने वाले भगवान केशव उच्च स्वर से अट्टहास करने लगे । हँसते समय उन महात्मा श्रीकृष्ण श्री अंगों में स्थित विद्युत के समान कान्ति वाले तथा अँगूठे के बराबर छोटे शरीर वाले देवता आग की लपटें छोड़ने लगे । उनके ललाट में ब्रह्मा और वक्ष:स्थल में रुद्रदेव विद्यमान थे। समस्त लोकपाल उनकी भुजाओं में स्थित थे । मुख से अग्नि की लपटें निकलने लगीं । आदित्य, साध्य, वसु, दोनों अश्विनीकुमार, इंद्र सहित मरुद्रण, विश्वदेव, यक्ष, गंधर्व, नाग और राक्षस भी उनके विभिन्न अंगों में प्रकट हो गए। उनकी दोनों भुजाओं से बलराम और अर्जुन का प्रादुर्भाव हुआ । दाहिनी भुजा में धनुर्धर अर्जुन और बायीं में हलधर बलराम विद्यमान थे। भीमसेन, युधिष्ठिर तथा माद्रीनन्दन नकुल-सहदेव भगवान के पृष्ठभाग में स्थित थे । प्रद्युम्न आदि वृष्णिवंशी तथा अंधकवंशी योद्धा हाथों में विशाल आयुध धारण किए भगवान के अग्रभाग में प्रकट हुए। शंख, चक्र, गदा, शक्ति, शार्ड्गधनुष, हल तथा नंदक नामक खड्ग– ये ऊपर उठे हुए ही समस्त आयुध श्रीकृष्ण की अनेक भुजाओं में देदीप्यमान दिखाई देते थे। उनके नेत्रों से, नासिका के छिद्रों से और दोनों कानों से सब ओर अत्यंत भयंकर धूमयुक्त आग की लपटें प्रकट हो रही थीं। समस्त रोम कूपों से सूर्य के समान दिव्य किरणें छिटक रही थीं । महात्मा श्रीकृष्ण के उस भयंकर स्वरूप को देखकर समस्त राजों के मन में भय समा गया और उन्होनें अपने नेत्र बंद कर लिए । द्रोणाचार्य, भीष्म, परम बुद्धिमान विदुर, महाभाग संजय तथा तपस्या धनी महर्षियों को छोड़कर अन्य सब लोगों की आँखें बंद हो गयी थीं । इन द्रोण आदि को भगवान जनार्दन ने स्वयं ही दिव्य दृष्टि प्रदान की थी (अत: वे आँख खोलकर उन्हें देखने में समर्थ हो सके)। उस सभाभवन में भगवान श्रीकृष्ण का वह परम आश्चर्यमय रूप देखकर देवताओं की दुंदुभियाँ बजने लगीं और उनके ऊपर फूलों की वर्षा होने लगीं। उस समय धृतराष्ट्र ने कहा- कमलनयन ! यदुकुल तिलक श्रीकृष्ण ! आप ही सम्पूर्ण जगत् के हितैषी हैं, अत: मुझ पर भी कृपा कीजिये। भगवान ! मेरे नेत्रों का तिरोधान हो चुका है, परंतु आज मैं पुन: आपसे दोनों नेत्र मांगता हूँ । केवल आपका दर्शन करना चाहता हूँ, आपके सिवा और किसी को मैं नहीं देखना चाहता। तब महाबाहु जनार्दन ने धृतराष्ट्र से कहा– कुरुनंदन ! आपको दो अदृश्य नेत्र प्राप्त हो जाएँ। महाराज जनमजेय ! वहाँ यह अद्भुत बात हुई कि धृतराष्ट्र ने भी भगवान श्रीक़ृष्ण से उनके विश्वरूप का दर्शन करने की इच्छा से दो नेत्र प्राप्त कर लिए। सिंहासन पर बैठे हुए धृतराष्ट्र को नेत्र प्राप्त हो गए, यह जानकार ऋषियों सहित सब नरेश आश्चर्यचकित हो मधुसूदन की स्तुति करने लगे। भरतश्रेष्ठ ! उस समय सारी पृथ्वी डगमगाने लगी, समुद्र में खलबली पड़ गई और समस्त भूपाल अत्यंत विस्मित हो गए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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