महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-6

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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-6 का हिन्दी अनुवाद

इसी प्रकार जो पुण्‍य या पाप बहुत अधिक होता है, वह थोड़े पाप – पुण्‍य को शीघ्र नष्‍ट कर देता है, इसमें कोई संशय नहीं है। राजेन्‍द्र ! जब वे पुण्‍य – पाप दोनों समान होते हैं, तब जिसको गुप्‍त रखा जाता है, उसकी वृद्धि होती है और जिसका वर्णन कर दिया जाता है, उसका क्षय हो जाता है। सम्‍मान देने वाले नरेश्‍वर ! पाप को दूसरों से कहने और उसके लिये पश्‍चाताप करने से प्राय: उसका नाश हो जाता है । इसी प्रकार धर्म भी अपने मुंह से दूसरों के सम्‍मुख प्रकट करने पर नष्‍ट होता है। छिपाने पर नि:संदेह ये दोनों ही अधिक बढ़ते हैं । इसलिये समझदार मनुष्‍य को चाहिये कि सर्वथा उद्योग करके अपने पाप को प्रकट कर दे, उसे छिपाने की कोशिश न करे । पाप का कीर्तन पाप के नाश का कारण होता है, इसलिये हमेशा पाप को प्रकट करना और धर्म को गुप्‍त रखना चाहिये। दाक्षिणात्‍य प्रति में अध्‍याय समाप्‍त व्‍यर्थ जन्‍म, दान और जीवन का वर्णन, सात्‍विक दोनों का लक्षण, दान का योग्‍य पात्र और ब्राह्मण की महिमा वैशम्‍पायन जी कहते हैं – जनमेजय ! धर्म पुत्र राजा युधिष्‍ठिर इस प्रकार भगवान् अच्‍युत के वचन सुनकर फिर भी श्री हरि से अन्‍य धर्म पूछने लगे – ‘पुरुषोत्‍तम ! कितने जन्‍म व्‍यर्थ समझे जाते हैं ? कितने प्रकार के दान निष्‍फल होते हैं ? और किन – किन मनुष्‍यों का जीवन निरर्थक माना गया है ? ‘पुरुषोत्‍तम ! जनार्दन ! मनुष्‍य किस अवस्‍था में दिये हुए दान के फल का इस लोक में अनुभव करता है । केशव ! गर्भ में स्‍थित हुआ मनुष्‍य किस दान का फल भोगता है ? श्रीकृष्‍ण ! बाल, युवा और वृद्ध – अवस्‍थाओं में मनुष्‍य किस – किस दान का फल भोगता है ? ‘भगवन् ! सात्‍विक, राजस और तामस दान कैसे होते हैं ? प्रभो ! उनसे किसकी तृप्‍ति होती है ? ‘उत्‍तम दान का स्‍वरूप क्‍या है ? और उससे मनुष्‍यों को किस फल की प्राप्‍ति होती है ? कौन – सा दान ऊर्ध्‍वगति को ले जाता है ? कौन – सा मध्‍यम गति को और कौन – सा नीच गति को ले जाता है ? देवाधिदेव ! यह मुझे बताने की कृपा कीजिये। ‘मधुसूदन ! मैं इस विषय को जानना चाहता हूं और इसे सुनने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्‍कण्‍ठा है ; क्‍योंकि आपके वचन सत्‍य और पुण्‍यमय हैं’। श्रीभगवान् ने कहा – राजन् ! मैं तुम्‍हें न्‍याय के अनुसार यथार्थ एवं उत्‍तम उपदेश सुनाता हूं, ध्‍यान देकर सुनो । यह विषय परम पवित्र और सम्‍पूर्ण पापों को नष्‍ट करने वाला है। नरेश्‍वर ! चौदह जन्‍म व्‍यर्थ समझे जाते हैं । क्रमश: पचपन प्रकार के दान निष्‍फल होते हैं और जिन – जिन मनुष्‍यों का जीवन निरर्थक होता है, उनकी संख्‍या छ: बतलायी गयी है । भूपाल ! इन सबका मैं क्रमश: वर्णन करूंगा। जो धर्म का नाश करने वाले, लोभी, पापी, बलिवैश्‍वदेव किये बिना भोजन करने वाले, परस्‍त्री गामी, भोजन में भेद करने वाले और असत्‍य भाषी हैं, उनका जन्‍म वृथा है। पाण्‍डुनन्‍दन युधिष्‍ठिर ! जो बन्‍धु – बान्‍धवों को क्‍लेश देकर अकेले ही मिठाई खाने वाले हैं, जो माता – पिता, अध्‍यापक, गुरु, और मामा – मामी को मारते या गाली देते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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