महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-22

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द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: द्विनवतितम अध्याय: भाग-22 का हिन्दी अनुवाद

‘जो मनुष्‍य श्रद्धापूर्वक अतिथि–सत्‍कार करता है, वह मनुष्‍यों में महान धनवान, श्रीमान, वेद – वेदांग का पारदर्शी, सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों के अर्थ और तत्‍व का ज्ञाता एवं भोग सम्‍पन्‍न ब्राह्मण होता है। ‘जो मनुष्‍य धर्मपूर्वक धन का उपार्जन करके भोजन में भेद न रखते हुए एक वर्ष तक सब का अतिथि–सत्‍कार करता है, उसके समस्‍त पाप नष्‍ट हो जाते हैं । ‘नरेश्‍वर ! जो सत्‍यवादी जितेन्‍द्रिय पुरुष समय का नियम न रखकर सभी अतिथियों की श्रद्धापूर्वक सेवा करता है, जो सत्‍य प्रतिज्ञ है, जिसने क्रोध को जीत लिया है, जो शाखा धर्म से रहित, अधर्म से डरने वाला और धर्मात्‍मा है, जो माया और मत्‍सरता से रहित है, जो भोजन में भेद–भाव नहीं करता तथा जो नित्‍य पवित्र और श्रद्धा सम्‍पन्‍न रहता है, वह दिव्‍य विमान के द्वारा इन्‍द्र लोक में जाता है । वहां वह दिव्‍यरूपधारी और महायशस्‍वी होता है । अप्‍सराएं उसके यश का गान करती हैं। ‘वह एक मन्‍वन्‍तर तक वहीं देवताओं से पूजित होता है और क्रीड़ा करता रहता है। उसके बाद मनुष्‍य लोक में आकर भोग सम्‍पन्‍न ब्राह्मण होता है’। श्रीभगवान् ने कहा–पाण्‍डुनन्‍दन ! अब मैं सबसे उत्‍तम भूमि दान का वर्णन करता हूं । जो मनुष्‍य रमणीय भूमिका दक्षिणा के साथ श्रोत्रिय अग्‍निहोत्री दरिद्र ब्राह्मण को दान देता है, वह उस समय सभी भोगों से तृप्‍त, सम्‍पूर्ण रत्‍नों से विभूषित एवं सब पापों से मुक्‍त हो सूर्य के समान देदीप्‍यमान होता है। वह महायशस्‍वी पुरुष प्रात:कालीन सूर्य के समान प्रकाशित, विचित्र ध्‍वजाओं से सुशोभित दिव्‍य विमान के द्वारा मेरे लोक में जाता है। क्‍योंकि भूमि दान से बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है और भूमि छीन लेने से बढ़कर दूसरा कोई पाप नहीं है। कुरुश्रेष्‍ठ ! दूसरे दानों के पुण्‍य समय पाकर क्षीण हो जाते हैं, किंतु भूमिदान के पुण्‍य का कभी भी क्षय नहीं होता। राजन् ! पृथ्‍वी का दान करने वाला मानो सुवर्ण, मणि, रत्‍न, धन, और लक्ष्‍मी आदि समस्‍त पदार्थों का दान करता है। भूमि-दान करने वाला मनुष्‍य मानों समस्‍त समुद्रों को, सरिताओं को, पर्वतों को, सम-विषम प्रदेशों को, सम्‍पूर्ण गन्‍ध और रसों को देता है। पृथ्‍वी का दान करने वाला मनुष्‍य मानो नाना प्रकार के पुष्‍पों और फलों से युक्‍त वृक्षों का तथा कमल और उत्‍पलों के समूहों का दान करता है। जो लोग दक्षिणा से युक्‍त अग्‍निष्‍टोम आदि यज्ञों के द्वारा देवताओं का यजन करते हैं, वे भी उस फल को नहीं पाते, जो भूमि–दान का फल है। जो मनुष्‍य श्रोत्रिय ब्राह्मण को धान से भरे हुए खेत की भूमि दान करता है, उसके पितर महाप्रलय काल तक तृप्‍त रहते हैं। राजेन्‍द्र ! ब्राह्मण को भूमि–दान करने से सब देवता, सूर्य, शंकर और मैं – ये सभी प्रसन्‍न होते हैं ऐसा समझो। युधिष्‍ठर ! भूमि–दान के पुण्‍य से पवित्र चित्‍त हुआ दाता मेरे परम धाम में निवास करता है – इसमें विचार करने की कोई बात नहीं है। मनुष्‍य जीविका के अभाव में जो कुछ पाप करता है, उससे गोकर्ण मात्र भूमि–दान करने पर भी छुटकारा पा जाता है। एक एक महीने तक उपवास, कृच्‍छ्र और चान्‍द्रायण व्रतका अनुष्‍ठान करने से जो पुण्‍य होता है, वह गोकर्ण मात्र भूमि – दान करने से हो जाता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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