महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 46 श्लोक 18-32

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

षट्चत्वारिंश (46) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद


(वान प्रस्थ की अवधि पूरी करके) सम्पूर्ण भूतों को अभय दान देकर कर्म त्याग रूप संन्यास धर्म का पालन करे। सब प्राणियों के सुख में सुख माने। सबके साथ मित्रता रखे। समस्त इन्द्रियों का संयम और मुनि वृत्ति का पालन करे। बिना याचना किये, बिना संकल्प के दैवात जो अन्न प्राप्त हो जाय, उस भिक्षा से ही जीवन निर्वाह करे। प्रात: काल का नित्यकर्म करने के बाद जब गृहस्थों के यहाँ रसोई घर से धुआँ निकलना बंद हो जाय, घर के सब लोग खा पी चुकें और बर्तन धो-माजकर रख दिये गये हों, उस समय मोक्ष धर्म के ज्ञाता संन्यासी को भिक्षा लेने की इच्छा करनी चाहिये। भिक्षा मिल जाने पर हर्ष और न मिलने पर विषाद न करे। (लोभवश) बहुत अधिक भिक्षा का संग्रह न करे। जितने से प्राण यात्रा का निर्वाह हो उतनी ही भिक्षा लेनी चाहिये। संन्यासी जीवन निर्वाह के ही लिये भिक्षा माँगे। उचित समय तक उसके मिलने की बाट देखे। चित्त को एकाग्र किये रहे। साधारण वस्तुओं की प्राप्ति की भी इच्दा न करे। जहाँ अधिक सम्मान होता हो, वहाँ भोजन न करे। मान प्रतिष्ठान के लाभ से संन्यासी को घृणा करनी चाहिये। वह खाये हुए तिक्त, कसैले तथा कड़वे अन्न का स्वाद न ले। भोजन करते समय मधुर रस का भी आस्वादन न करे। केवल जीवन निर्वाह के उद्देश्य से प्राण धारण मात्र के लिये उपयोगी अन्न का आहार करे। मोक्ष के तत्त्व को जानने वाला संन्यासी दूसरे प्राणियों की जीविका में बाधा पहुँचाये बिना ही यदि भिक्ष मिल जाती हो तभी उसे स्वीकार करे। भिक्षा माँगते समय दाता के द्वारा दिये जाने वाले अन्न के सिवा दूसरा अन्न लेने की कदापि इच्छा न करे। उसे अपने धर्म का प्रदर्शन नहीं करना चाहिये। रजो गुण से रहित होकर निर्जन स्थान में विचरते हरना चाहिये। रता को सोने के लिये सूने घर, जंगल, वृक्ष की जड़, नदी के किनारे अथवा पर्वत की गुफा का आश्रय लेना चाहिये। ग्रीष्मकाल में गाँव में एक रात से अधिक नहीं रहना चाहिये, किंतु वर्षाकाल में किसी एक ही स्थान पर रहना उचित हैं। जब तक सूर्य का प्रकाश रहे तभी तक संन्यासी के लिये रास्ता चलना उचित है। वह कीड़े की तरह धीरे-धीरे समूची पृथ्वी पर विचरता रहे और यात्रा के समय जीवों पर दया करके पृथ्वी को अच्छी तरह देख भालकर आगे पाँव रखे। किसी प्रकार का संग्रह न करे और कहीं भी आसक्तिपूर्वक निवास न करे। मोक्ष धर्म के ज्ञाता संन्यासी को उचित है कि सदा पवित्र जल से काम ले। प्रतिदिन तुरंत निकाले हुए जल से स्नान करे (बहुत पहले के भरे हुए जल से नहीं)। अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्य, सरलता, क्रोध का अभाव, दोष दृष्टि का त्याग, इन्द्रिय संयम और चुगली न खाना- इन आठ व्रतों का सदा सावधानी के साथ पालन करे। इन्द्रियों को वश में रखे। उसे सदा पाप, शठता और कुटिलता से रहित होकर बर्ताव करना चाहिये। नित्यप्रति जो अन्न अपने आप प्राप्त हो जाय, उसको ग्रहण करना चाहिये, किंतु उसके लिये भी मन में इच्छा नहीं रखनी चाहिए। प्राणयात्रा का निर्वाह करने के लिये जितना अन्न आवश्यक है, उतना ही ग्रहण करे। धर्मत: प्राप्त हुए अन्न का ही आहार करे। मनमाना भोजन न करे।





« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।