महाभारत आदि पर्व अध्याय 78 श्लोक 1-17

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अष्टसप्ततितम (78) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: अष्टसप्ततितम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

देवयानी और शर्मिष्ठा का कलह, शर्मिष्ठा द्वारा कुएं में गिरायी गयी देवयानी को ययाति का निकालना और देवयानी का शुक्राचार्य के साथ वार्तालाप वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! जब कच मृत संजीवनी विद्या सीखकर आ गये, तब देवताओं को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे कच से उस विद्या को पढ़कर कृतार्थ हो गये। फि‍र सबने मिलकर इन्‍द्र से कहा- पुरन्‍दर ! ‘अब आपके लिये पराक्रम करने कर समय आ गया है, अपने शत्रुओं का संहार कीजिये’। संगठित होकर आये हुए देवताओं द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर भूलोक में आये। वहां एक वन में उन्‍होंने बहुत-सी स्त्रियों को देखा। वह वन चैत्ररथ नामक देवोद्यान के समान मनोहर था। उसमें वे कन्‍याएं जलक्रीड़ा कर रही थीं। इन्‍द्र ने वायु का रूप धारण करके सारे कपड़े परस्‍पर मिला दिये। तब वे सभी कन्‍याएं एक साथ जल से निकलकर अपने-अपने अनेक प्रकार के वस्त्र, जो निकट ही रक्‍खे हुए थे, लेने लगी। उस सम्मिश्रण में शर्मिष्ठा ने देवयानी का वस्त्र ले लिया। शर्मिष्ठा वृषपर्वा की पुत्री थी; दोनों के वस्त्र मिल गये हैं, इस बात का उसे पता नहीं था। राजेन्‍द्र ! उस समय वस्त्रों की अदला- बदली को लेकर देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों में परस्‍पर बड़ा भारी विरोध खड़ा हो गया। देवयानी बोली- अरी दानव की बेटी ! मेरी शिष्‍या होकर तू मेरा वस्त्र कैसे ले रही है? तू सज्‍जनों के उत्तम आचार से शून्‍य है, अत: तेरा भला न होगा। शर्मिष्ठा ने कहा- अरी ! मेरे पिता बैठे हों या सो रहे हों, उस समय तेरा विनयशील सेवक के समान नीचे खड़ा होकर बार-बार वन्‍दीजनों की भांति उनकी स्‍तुति करता है। तू भिखमंगे की बेटी है, तेरा बाप स्‍तुति करता और दान लेता है। मैं उनकी बेटी हूं, जिनकी स्‍तुति की जाती है, जो दूसरों को दान देते हैं और स्‍वयं किसी से कुछ भी नहीं लेते हैं। अरी भिक्षुकी ! तू छाती पीट-पीटकर रो अथवा धूल में लोट-लोटकर कष्‍ट भोग। मुझसे द्रोह रख या क्रोध कर (इसकी परवा नहीं है)। भिखमंगिनि ! तू खाली हाथ है, तेरे पास कोई अस्त्र-शस्त्र भी नहीं है और देख ले, मेरे पास हथियार है । इसलिये तू मेरे ऊपर व्‍यर्थ ही क्रोध कर रही है। यदि लड़ना ही चाहती है, तो इधर से भी डटकर सामना करने वाला मुझ-जैसा योद्धा तुझे मिल जायगा। मैं तुझे कुछ भी नहीं गिनती। भिक्षुकी ! अब से यदि मेरे विरुद्ध कोई बात कहेगी, तो अपनी दासियों से घसीटवाकर तुझे यहां से बाहर निकलवा दूंगी। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! देवयानी ने सच्ची बातें कहकर उच्चता और महत्ता सिद्ध कर दी और शर्मिष्ठा के शरीर से अपने वस्त्र को खींचने लगी। यह देख शर्मिष्ठा ने उसे कुऐं में ढकेल दिया और अब यह मर गयी होगी, ऐसा समझ कर पापमय विचार वाली शर्मिष्ठा नगर को लौट आयी। वह क्रोध के आवेश में थी, अत: देवयानी की ओर देखे बिना ही घर लौट गयी। तदनन्‍तर नहुषपुत्र ययाति उस स्‍थान पर आये। उनके रथ के वाहन तथा अन्‍य घोड़े भी थक गये थे। वे एक हिंसक पशु को पकड़ने के लिये उसके पीछे-पीछे आये थे और प्‍यास से कष्ट पा रहे थे। ययाति उस जल शून्‍य कूप को देखने लगे। वहां उन्‍हें अग्नि-शिखा के समान तेजस्विनी एक कन्‍या दिखाई दी, जो देवांगना के समान सुन्‍दरी थी। उस पर दृष्टि पड़ते ही राजा ने उससे पूछा। नृपश्रेष्ठ ययाति पहले परम मधुर वचनों द्वारा शान्‍त भाव से उसे आश्‍वासन दिया और कहा- ‘तुम कौन हो? तुम्‍हारे नख लाल-लाल हैं। षोडशी जान पड़ती हो। तुम्‍हारे कानों के मणिमय कुण्‍डल अत्‍यन्‍त सुन्‍दरऔर चमकीले हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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