महाभारत आदि पर्व अध्याय 223 श्लोक 1-21

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त्रयोविंशत्यधिकद्विशततम (223) अध्‍याय: आदि पर्व (खाण्डवदाह पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: त्रयोविंशत्यधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुन का अग्नि से प्रार्थना स्वीकार करके उनसे दिव्य धनुष एवं रथ आदि माँगना

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय ! अपनी असफलता से अग्निदेव को बड़ी निराशा हुई। वे सदा ग्लानि में डूबे रहने लगे और कुपित हो पितामह ब्रह्माजी के पास गये। वहाँ उन्होनें ब्रह्माजी से सब बातें यथोचित रीति से कह सुनायीं। तब भगवान् ब्रह्माजी दो घड़ी तक विचार करके उनसे बोले -। ‘अनघ ! तुम जिस प्रकार खाण्डववन को जलाओगे, वह उपाय तो मुझे सूझ गया है; किंतु उसके लिये तुम्हें कुछ समय तक प्रतीक्षा करनी पडे़गी। अनल ! इसके बाद तुम खाण्डववन को जला सकोगे। ‘हव्यवाहन ! उस समय नर और नारायण तुम्हारे सहायक होंगे। उन दोनों के साथ रहकर तुम उस वन को जला सकोगे’। तब अग्नि ने ब्रह्माजी से कहा - ‘अच्छा, ऐसा ही सही।’ तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात् नर-नारायण ऋषियों के अवतीर्ण होने की बात जानकर अग्निदेव को ब्रह्माजी की बात का स्मरण हुआ। राजन् ! तब वे पुनः ब्रह्माजी के पास गये । उस समय ब्रह्माजी ने कहा - ‘अनल ! अब जिस प्रकार तुम इन्द्र के देखते-देखते अभी खाण्डववन जला सकोगे, वह उपाय सुनो। ‘विभावसो ! आदिदेव नर और नारायण मुनि इस ’उस वन को जलाने के लिये तुम शीघ्र ही जाओ समय देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये मनुष्यलोक में अवतीर्ण हुए हैं। ’वहाँ के लोग उन्हें अर्जुन और वासुदेव के नाम से जानते हैं। वे दोनों इस समय खाण्डववन के पास ही एक साथ बैठे हैं। ‘उन दोनों से तुम खाण्डववन जलाने के कार्य में सहायता की याचना करो । तब तुम इन्द्रादि देवताओं से रक्षित होने पर भी उस वन को उस वन को जला सकोगे। ‘वे दोनो वीर एक साथ होने पर यत्नपूर्वक वन के सारे जीवों को भी रोकेंगे और देवराज इन्द्र का भी सामना करेंगे, मुझे इसमें कोई संशय नहीं है’। नृपश्रेष्ठ ! यह सुनकर हव्यवाहन ने तुरंत श्रीकृष्ण और अर्जुन के पास आकर जो कार्य निवेदन किया, वह मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ। जनमेजय ! अग्नि का वह कथन सुनकर अर्जुन ने इन्द्र की इच्छा के विरूद्ध खाण्डववन को जलाने की अभिलाषा रखने वाले जातवेदा अग्नि से उस समय के अनुकूल यह बात कही।

अर्जुन बोले - भगवन् ! मेरे पास बहुत से दिव्य एवं उत्तम अस्त्र तो हैं, जिनके द्वारा मैं एक क्या, अनेक वज्रधारियों से युद्ध कर सकता हूँ। परंतु मेरे पास मेरे बाहुबल के अनुरूप धनुष नहीं है, जो समरभूमि में युद्ध के लिये प्रयत्न करते समय मेरा वेग सह सके। इसके सिवा शीघ्रतापूर्वक बाण चलाते रहने के लिये मुझे इतने अधिक बाणों की आवश्यकता होगी, जो कभी समाप्त न हों तथा मेरी इच्छा के अनुरूप बाणों को ढ़ोने के लिये शक्तिशाली रथ भी मेरे पास नहीं है। मैं वायु के समान वेगवान् श्वेत वर्ण के दिव्य अश्व तथा मेघ के समान गम्भीर घोष करने वाला एवं सूर्य के समान तेजस्वी रथ चाहता हूँ। इसी प्रकार इन भगवान् श्रीकृष्ण के बल पराक्रम के अनुसार कोई आयुध इनके पास भी नहीं है, जिससे ये नागों और पिशाचों को युद्ध में मार सकें। भगवन् ! इस कार्य की सिद्धि के लिये जो उपाय सम्भव हो, वह मुझे बताइये, जिससे मैं इस महान् वन में जल बरसाते हुए इन्द्र को रोक सकूँ। भगवन् अग्निदेव ! पुरूषार्थ से जो कार्य हो सकता है, उसे हमलोग करने के लिये तैयार हैं; किंतु इसके लिये सुदृढ़ साधन जुटा देने की कृपा आपको करनी चाहिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत खाण्डवदाहपर्व में अर्जुन-अग्नि संवाद विषयक दो सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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