महाभारत आदि पर्व अध्याय 178 श्लोक 1-22

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अष्‍टसप्‍तत्‍यधिकशततम (178 ) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

महाभारत: आदि पर्व:अष्‍टसप्‍तत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद

पितरों द्वारा और्ष के क्रोध का निवारण ब्राह्मणी ने कहा- पुत्रो ! मैंने तुम्‍हारी दृष्टि नहीं ली हैं, मुझे तुम पर क्रोध भी नहीं है। परंतु मेरी जांघ से पैदा हुआ यह भृगुवंशी बालक निश्‍चय ही तुम्‍हारे ऊपर आज कुपित हुआ हैं। पुत्रो ! यह स्‍पष्‍ट जान पड़ता है कि इस महात्‍मा शिशु ने तुम लोगों द्वारा मारे गये अपने बन्‍धु-बान्‍धवों का स्‍मरण करके क्रोधवश तुम्‍हारी आंखे ले ली हैं, इसमें संशय नहीं है। बच्‍चो ! जब से तुम लोग भृगुवंशियों के गर्भस्‍थ बालकों की भी हत्‍या करने लगे, तब से मैंने अपने इस गर्भ को सौ वर्षो तक एक जांघ में छिपाकर रखा था। भृगुकुल का पुन: प्रिय करने की इच्‍छा से छहों अंगों-सहित सम्‍पूर्ण वेद इस बालक को गर्भ में ही प्राप्‍त हो गये थे।। अत: यह बालक अपने पिता के वध से कुपित हो निश्‍चय ही तुम लोगों को मार डालना चाहता है। इसी के दिव्‍य तेज से तुम्‍हारी नेत्र-ज्‍योति छिन गयी है। इसलिये तुम लोग मेरे इस उत्‍तम पुत्र और्ध से ही याचना करो। यह तुम लोगों के नतमस्‍तक होने से संतुष्‍ट होकर पुन: तुम्‍हारी ग्‍वोयी हुई नेत्रों की ज्‍योति दे देगा। वसिष्‍ठजी कहते हैं- पराशर ! ब्राह्मणी कके यों कहने पर उन सब क्षत्रियों ने तब और्व को (प्रणाम करके) कहा-आप प्रसन्‍न होइये। तब (उनके विनययुक्‍त वचन सुनकर)और्य ने प्रसन्‍न हो (अपने तप के प्रभाव से) उनकी नेत्रों की ज्‍योति दे दी। ये साधुशिरोमणी ब्रह्मर्षि अपनी माता का उरु भेदन करके उत्‍पन्‍न हुए थे, इसी कारण लोक में और्य नाम से उनकी ख्‍याति हुई । तदनन्‍तर अपनी खोयी हुई आंखें पाकर वे क्षत्रियलोग लौट गये; इधर भृगुवंशी और्य मुनि ने सम्‍पूर्ण लोकों के पराभव का विचार किया। वत्‍स पराशर ! उन महामना मुनि ने समस्‍त लोको का पूर्णरुप से विनाश करने की ओर अपना मन लगाया। भृगुकुल को आनन्द‍ति करने वाले उस कुमार ने (क्षत्रियों द्वारा मारे गये अपने भृगुवंशी पूर्वजों का सम्‍मान करने) (अथवा उनके वध का बदला लेने) के लिये सब लोकों के विनाश का निश्‍चय किया और बहुत बड़ी तपस्‍या द्वारा अपनी शक्ति को बढ़ाया। उसने अपने पितरों को आनन्दित करने के लिये अत्‍यन्‍त उग्र तपस्‍या द्वारा देवता, असुर और मनुष्‍यों सहित उन सभी लोकों को संतप्‍त कर दिया। तात ! तदनन्‍तर सभी पितरों ने अपने कुल का आनन्‍द बढ़ानेवाले और्व मुनि का निश्‍चय जानकर पितृलोक से आकर यह बात कही। पितर बोले-बेटा और्य ! तुम्‍हारी उग्र तपस्‍या का प्रभाव हमने देख लिया। अब अपना क्रोध रोकों और सम्‍पूर्ण लोकों पर प्रसन्‍न हो जाओ। तात ! यह न समझना कि जिस समय क्षत्रियलोग हमारी हिंसा कर रहे थे, उस समय शुद्ध अन्‍त:करण वाले हम भृगुवंशी ब्राह्मणों ने असमर्थ होने के कारण अपने कुल के वध को चुपचाप सह लिया। वत्‍स ! जब हमारी आयु हमारी बहुत बड़ी हो गयी (और तब भी मौत नहीं आयी),उस दिशा में हम लोगों को (बड़ा)खेद हुआ और हमने (जान-बूझकर) क्षत्रियों से स्‍वयं अपना वध कराने की इच्‍छा की। किसी भृगुवंशी ने अपने घर में जो धन गाढ़ दिया था, वह भी वैर बढ़ाने के लिये ही किया गया था। हम चाहते थे कि क्षत्रियलोग हमारे ऊपर कुपित हो जायं। द्विजश्रेष्‍ठ ! (यदि ऐसी बातें न होती तो) स्‍वर्गलोक की इच्‍छावाले हम भार्गवो को धन से क्‍या काम था; क्‍योंकि साक्षात् कुबेर ने हमें प्रचुर धनराशि लाकर दी थी। तात ! जब मौत हमें अपने अंग में न ले सकी, तब हम लोगों ने सर्वसम्‍मति से यह उपाय ढूंढ निकाला था। बेटा ! आत्‍महत्‍या करने वाले पुरुष शुभ लोकों को नही पाता, इसलिये हमने खूब सोच-विचार कर अपने ही हाथों अपना वध नही किया। बत्‍स! तुम जो यह (सब) करना चाहते हो, वह भी हमें प्रिय नहीं हैं। सम्‍पूर्ण लोंको का पराभव बहुत बड़ा पाप है, अत: उधर से धन को रोको। तात ! क्षत्रियों को न मारो। बेटा! भू आदि सात लोकों का भी संहार न करो। यह जो क्रोध उत्‍पन्‍न हुआ है, यह (तुम्‍हारे) तपस्‍या अमित तेज को दूषित करनेवाला है, अत: इसी को मारो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तगर्त चैत्ररथपर्व में और्वक्रोधनिवारक विषयक एक सौ अठहतरवां अध्‍याय पूरा हुआ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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