महाभारत आदि पर्व अध्याय 118 श्लोक 1-12

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अष्टादशाधिकशततम (118) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: अष्टादशाधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद

पाण्‍डु का अनुताप, संन्‍यास लेने का निश्चय तथा पत्नियों के अनुरोध से वानप्रस्‍थ आश्रम में प्रवेश

वैशम्‍पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! उन मृगरुपधारी मुनि को मरा हुआ छोड़कर राजा पाण्‍डु जब आगे बढ़े, तब पत्नीसहित शोक और दु:ख से आतुर हो अपने सगे भाई-बन्‍धु की भांति उनके लिये विलाप करने लगे तथा अपनी भूल पर पश्चाताप करते हुए कहने लगे। पाण्‍डु बोले- खेद की बात है कि श्रेष्ठ पुरुषों के उत्तम कुल में उत्‍पन्न मनुष्‍य भी अपने अन्‍त:करण पर वश न होने के कारण काम के फंदे में फंसकर विवेक खो बैठते हैं और अनुचित कर्म करके उसके द्वारा भारी दुर्गति में पड़ जाते हैं। हमने सुना है, सदा धर्म में मन लगाये रहने वाले महाराज शान्‍तनु से जिनका जन्‍म हुआ था, वे मेरे पिता विचित्रवीर्य भी काम भोग में आसक्त चित्त होने के कारण ही छोटी अवस्‍था में ही मृत्‍यु को प्राप्त हुए थे। उन्‍हीं कामासक्त नरेश की पत्नी से वाणी पर संयम रखने वाले ॠषिप्रवर भगवान् श्रीकृष्‍ण द्वैयापन ने मुझे उत्‍पन्न किया। मैं शिकार के पीछे दौड़ता रहता हूं; मेरी इसी अनीति के कारण जान पड़ता है देवताओं ने मुझे त्‍याग दिया है। इसीलिये तो ऐसे विशुद्ध वंश में उत्‍पन्न होने पर भी आज व्‍यसन में फंसकर मेरी यह बुद्धि इतनी नीच हो गयी। अत: अब मैं इस निश्चय पर पहुंच रहा हूं कि मोक्ष के मार्ग पर चलने से ही अपना कल्‍याण है। स्त्री-पुत्र आदि का बन्‍धन ही सबसे महान् दु:ख है। आज मैं अपने पिता वेदव्‍यासजी का उस उत्तम वृति का आश्रय लूंगा, जिससे पुण्‍य का कभी नाश नहीं होता। मैं अपने शरीर और मन को नि:संदेह‍ अत्‍यन्‍त कठोर तपस्‍या में लगाऊंगा। इसलिये अब अकेला (स्त्री रहित) ओर एकाकी (सेवक आदि से भी अलग) रहकर एक-एक वृक्ष के नीचे फल की भिक्षा मांगूंगा ।सिर झुकाकर मौनी संन्‍यासी हो इन वानप्रस्थियों के आश्रमों में विचरूंगा। उस समय मेरा शरीर धूल से भरा होगा और निर्जन एकान्‍त स्‍थान में मेरा निवास होगा। अथवा वृक्षों का तल ही मेरा निवास गृह होगा। मैं प्रिय एवं अप्रिय सब प्रकार की वस्‍तुओं को त्‍याग दूंगा। न मुझे किसी के ‍वियोग का शोक होगा और न किसी की प्राप्ति या संयोग से हर्ष ही होगा। निन्‍दा और स्‍तुति दोनों मेरे लिये समान होंगी। न मुझे आशीर्वाद की इच्‍छा होगी नमस्‍कार की। मैं सुख-दु:ख आदि द्वन्‍द्वों से रहित और संग्रह-परिसंग्रह से दूर रहूंगा। न तो किसी की हंसी उड़ाऊंगा और न क्रोध से किसी पर भौंहें टेढ़ी करूंगा। मेरे मुख पर प्रसन्नता छायी रहेगी तथा सब भूतों के हित साधन में मैं संलग्‍न रहूंगा। (स्‍वेद्रज, उद्भिज्ज, अण्‍डज, जरायुज-) चार प्रकार के जो चराचर प्राणी हैं, उनमें से किसी की भी मैं हिंसा नहीं करूंगा। जैसे पिता अपनी अनेक संतानों में सर्वदा समभाव रखता है, उसी प्रकार समस्‍त प्राणियों के प्रति मेरा सदा समान भाव होगा। (पहले कहे अनुसार) मैं केवल एक समय वृक्षों से भिक्षा मांगूंगा अथवा यह सम्‍भव न हुआ तो दस-पांच घरों में घूमकर (थोड़ी-थोड़ी) भिक्षा ले लूंगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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