महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 43 श्लोक 1-18

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त्रिचत्‍वारिंश (43) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रिचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

देव शर्मा का विपुल को निर्दोष बताकर समझाना और भीष्‍म का युधिष्ठिर को स्त्रियों की रक्षा के लिये आदेश देना।

भीष्‍मजी कहते हैं- नरेश्‍वर! अपने शिष्‍य विपुल को आया हुआ देख महातेजस्‍वी देव शर्मा ने उनसे जो बात कही, वही बताता हूँ, सुनो। देव शर्मा ने पूछा- मेरे प्रिय शिष्‍य विपुल! तुमने उस महान वन में क्‍या देखा था? वे लोग तुम्‍हें तो जानते हैं। उन्‍हें तुम्‍हारी अन्‍तरात्‍मा का तथा मेरी पत्‍नी रुचि का भी पूरा परिचय प्राप्‍त है। विपुल ने कहा- ब्रम्हर्षे! मैंने जिसे देखा था, वह स्‍त्री-पुरुष का जोड़ा कौन था तथा वे छ: पुरुष भी कौन थे जो मुझे अच्‍छी तरह जानते थे और जिनके विषय में आप भी मुझसे पूछ रहे हैं? देव शर्मा ने कहा- ब्राम्हन! तुमने जो स्‍त्री-पुरुष का जोड़ा देखा था उसे दिन और रात्रि समझो। वे दोनों चक्रवत घूमते रहते हैं, अत: उन्‍हें तुम्‍हारे पाप का पता है। विप्रवर! जो अत्‍यन्‍त हर्ष में भरकर जुआ खेलते हुए छ: पुरुष दिखाई दिये उन्‍हें छ: ॠतु जानो; वे भी तुम्‍हारे पाप को जानते हैं। ब्राम्हन! पापात्‍मा मनुष्‍य एकान्‍त में पाप कर्म करके ऐसा विश्‍वास न करे कि कोई मुझे इस पाप कर्म में लिप्‍त नहीं जानता है। एकान्‍त में पापकर्म करते हुए पुरुष को ॠतुएँ तथा रात-दिन सदा देखते रहते हैं। तुमने मेरी स्‍त्री की रक्षा करते समय जिस प्रकार वह पापकर्म किया था,उसे करके भी मुझे बताया नहीं था, अत: तुम्‍हें वे ही पापाचारियों के लोक मिल सकते थे। गुरु को अपना पापकर्म न बताकर हर्ष और अभिमान में भरा देख वे पुरुष तुम्‍हें अपने कर्म की याद दिलाते हुए वैसी बातें बोल रहे थे, जिन्‍हें तुमने अपने से कानों से सुना है। पापी में जो पापकर्म है और शुभकर्मी मनुष्‍य में जो शुभकर्म है, उन सबको दिन, रात और ॠतुएँ सदा जानती रहती हैं। ब्राम्हन! यौवनमद से उन्‍मत रहने वाली उस स्‍त्री की (उसके शरीर में प्रवेश किये बिना) रक्षा करना तुम्‍हारे वश की बात नहीं थी। अत: तुमने अपनी ओर से कोई पाप नहीं किया; इसलिये मैं प्रसन्‍न हूँ। जो मानसिक दोष से रहित हैं उन्‍हें पाप नहीं लगता। यही बात तुम्‍हारे लिये भी हुई है। अपनी प्राणवल्‍लभा पत्‍नी का आलिंगन और भाव से किया जाता है और अपनी पुत्री का और भाव से; अर्थात उसे वात्‍सल्‍य- स्‍नेह से गले लगाया जाता है। तुम्‍हारे मन में राग नहीं है। तुम सर्वथा विशुद्ध हो, इसलिये रुचि के शरीर में प्रवेश करके भी दूषित नहीं हुए हो। द्विजश्रेष्‍ठ! यदि मैं इस कर्म में तुम्‍हारा दुराचार देखता तो कुपित होकर तुम्‍हें शाप दे देता और ऐसा करके मेरे मन में अन्‍यथा विचार या पश्‍चाताप नहीं होता। स्त्रियाँ पुरुष में आसक्‍त होती हैं और पुरुषों का भी इसमें पूर्णत: वैसा ही भाव होता है। यदि तुम्‍हारा भाव उसकी रक्षा करने के विपरीत होता तो तुम्‍हें शाप अवश्‍य प्राप्‍त होता और मेरा विचार तुम्‍हें शाप देने का अवश्‍य हो जाता। विपुल से ऐसा कहकर प्रसन्‍न हुए म‍हर्षि देव शर्मा अपनी पत्‍नी और शिष्‍य के साथ स्‍वर्ग में जाकर वहाँ का सुख भोगने लगे। राजन! पूर्वकाल में गंगा के तटपर कथा-वार्ता के बीच में ही महामुनि मार्कण्‍डेय ने मुझे यह आख्‍यान सुनाया था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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