महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 30 श्लोक 19-38

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त्रिंश (30) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: त्रिंश अध्याय: श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद

भारत! उस नगरी के घेरे का एक छोर गंगाजी के निवास करते हुए राजसिंह भूपाल दिवोदास पर पुनः हैहयराजकुमारों ने धावा किया। महातेजस्वी महाबली राजा दिवोदास ने पुरी से बाहर निकलकर उन राजकुमारों के साथ युद्ध किया। उनका यह युद्ध देवासुर-संग्राम के समान भयंकर था। महाराज! काशिराज ने एक हजार दिन (दो वर्ष नौ महीने दस दिन)-तक शत्रुओं के साथ युद्ध किया। इस युद्ध में दिवोदास के बहुत-से सिपाही और हाथी, घोड़े आदि वाहन मारे गये। उनका खजाना खाली हो गया और वे बड़ी दयनीय दशा में पड़ गये। अन्त में अपनी राजधानी छोड़कर भाग निकले। शत्रुदमन नेरश ! बुद्धिमान् भरद्वाज के रमणीय आश्रम पर जाकर राजा दिवोदास हाथ जोड़े हुए वहां मुनि की शरण में गये। बृहस्पति ज्येष्ठ पुत्र भरद्वाज जी बड़े शीलवान् और दिवोदास के पुरोहित थे।
उन्होंने राजा को उपस्थित देखकर पूछा-’नरेश्वर! तुम्हें यहां आने की क्या आवश्यकता पड़ी ? मुझे अपना सब समाचार बता दो। तुम्हारा जो भी प्रिय कार्य होगा उसे मैं करूंगा। इसके लिये मेरे मन में कोई अन्यथा विचार नहीं होगा’। राजाने कहा- भगवन्! स्ंग्राम में वीतहव्य के पुत्रों ने मेरे कुल का विनाश कर डाला। मैं अकेला ही अत्यन्त संतप्त हो आपको शरण में आया हूं। भगवन्! मैं आपका शिष्य हूं और आप मेरे गुरू है। शिष्य के प्रति गुरू का जो सहज स्नेह होता है उसी के द्वारा आप मेरी रक्षा कीजिये। उन पापकर्मियों ने मेरे कुल में केवल मुझ एक ही व्यक्ति को शेष छोड़ा है। यह सुनकर प्रतापी महर्षि महाभाग भरद्वाजने कहा-’सुदेवनन्दन! तुम न डरो, न डरो। तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये।’प्रजानाथ! मैं तुम्हारी पुत्र-प्राप्ति के लिये एक यज्ञ करूंगा जिसकी सहायता से तुम हजारों वीतहव्य पुत्रों को मार गिराओगे। तब ऋषि ने राजा से पुत्रेष्टि यज्ञ कराया। इससे उनके प्रतर्दन नाम से विख्यात पुत्र हुआ।
भारत! वह पैदा होते ही इतना पढ़ गया कि तुरंत तेरह वर्ष की अवस्थाका-सा दिखायी देने लगा। उसी समय उसने अपने मुख से सम्पूर्ण वेद और धनुर्वेद का गान किया। बुद्धिमान भरद्वाजमुनि ने उसे योगशक्ति से सम्पन्न कर दिया और उसके शरीर में सम्पूर्ण जगत का तेज भर दिया। तदनन्तर राजकुमार प्रतर्दन ने अपने शरीर पर कवच धारण किया और हाथ में धनुष ले लिया। उस समष् देवर्षि का उसका यश गाने लगा। वन्दीजनों से वन्दित हो वह नवोदित सूर्य के समान प्रकाशित होने लगा। वह रथपर बैठ गया और कमर में तलवार बांधकर प्रज्वलित अग्नि के समान उभ्दासित होने लगा। ढाल, तलवार और धनुष से सम्पन्न हो वह धनुष की टंकार करता हुआ आगे बढ़ा। उसे देखकर सुदेव-पुत्र राजा दिवोदास को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने मन-ही-मन वीतहव्य के पुत्रों को अपने पुत्र के तेज से दग्ध हुआ ही समझा।
तत्पश्चात राजा दिवोदास ने प्रतर्दन को युवराज के पद पर स्थापित करके अपने आपको कृतकृत्य माना और बड़े आनन्द का अभुभव किया। इसके बाद राजा ने अपने पुत्र शत्रुदमन प्रर्तदन को वीतहव्य पुत्रों का वध करने के लिये भेजा। पिता की आज्ञा पाकर वह शत्रुनगरी पर विजय पानेवाला पराक्रमी वीर शीघ्र ही रथसहित गंगा पार कर के वीतहव्यपुत्रों की राजधानी की ओर चल दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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