महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 326-345
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चतुर्दश (14) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
आप ही सम्पूर्ण लोकों के आदि हैं । आप ही संहार करने वाले काल हैं । संसार में और भी जो-जो वस्तुएं सर्वथा तेज में बढ़ी-बढ़ी हैं, वे सभी आप भगवान् ही हैं - यही मेरी निश्चित धारण है । भगवन् ! देव ! आपको नमस्कार है । भक्तवत्सल ! आपको नमस्कार है । योगेश्वर ! आपको नमस्कार है। विश्व की उत्पति के कारण ! आपको नमस्कार है । सनातन परमेश्वर ! आप मुझ दीन-दु:खी भक्त पर प्रसन्न होइये । मैं ऐश्वर्य से रहित हूं । आप ही मेरे आश्रयदाता हों । परमेश्वर देवेश ! मैंने अनजान में जो अपराध किये हैं, वह सब यह समझकर क्षमा कीजिये कि यह मेरा अपना ही भक्त है ।देवेश्वर ! आपने अपना रूप बदलकर मुझे मोह में डाल दिया । महेश्वर ! इसीलिये न तो मैंने आपको अर्ध्य दिया और न पाद्य ही समर्पित किया । इस प्रकार भगवान् शिव की स्तुति करके मैंने उन्हें भक्तिभाव से पाद्य और अर्घ्य निवेदन किया । फिर दोनों हाथ जोड़कर उन्हें अपना सब कुछ समर्पित कर दिया । तात! तदनन्तर मेरे मस्तक पर शीतल जल और दिव्य सुगन्ध से युक्त फूलों की शुभ वृष्टि होने लगी। उसी समय देव गणों ने दिव्य दुन्दुभि बजाना आरम्भ किया और पवित्र गन्ध से युक्त पुण्यमयी सुखद वायु चलने लगी । तब पत्नी सहित प्रसन्न हुए वृषभध्वज महादेव जी ने मेरा हर्ष बढ़ाते हुए -से वहां सम्पूर्ण देवताओं से कहा- 'देवताओं ! तुम सब लोग देखो कि महात्मा उपमन्यु की मुझ में नित्य एकभाव से बनी रहने वाली कैसी उत्तम भक्ति है' । श्रीकृष्ण ! शूलपाणि महादेवजी के ऐसा कहने पर वे सब देवता हाथ जोड़ उन वृषभ ध्वज शिवजी को नमस्कार करके बोले- 'भगवान! देवदेवेश्वर ! लोकनाथ ! जगत्पते ! ये द्विजश्रेष्ठ उपमन्यु आपसे अपनी सम्पूर्ण कामनाओं के अनुसार अभीष्ट फल प्राप्त करें' । ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवताओं के ऐसा कहने पर सबके ईश्वर और कल्याणकारी भगवान शिव ने मुझसे हंसते हुए-से कहा - भगवान शिवजी बोले- वत्स उपमन्यों ! मैं तुम पर बहुत संतुष्ट हूं । मुनिपांडव ! तुम मेरी ओर देखो । ब्रह्मर्षे ! मुझमें तुम्हारी सुदृढ़ भक्ति है । मैंने तुम्हारी परीक्षा कर ली है । तुम्हारी इस भक्ति से मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई है, अत: मैं तुम्हें आज तुम्हारी सभी मनोवांछित कामनाएं पूर्ण किये देता हूं । परम बुद्धिमान महादेव जी के इस प्रकार कहनेपर मेरे नेत्रों हर्ष के आंसू बहने लगे और सारे शरीर में रामांच हो आया । तब मैंने धरती पर घुटने टेककर भगवान को बारंबार प्रणाम किया और हर्षगद्गद वाणी द्वारा महादेव जी से इस प्रकार कहा - 'देव ! आज ही मैंने वास्तव में जन्म ग्रहण किया है । आज मेरा जन्म सफल हो गया, क्योंकि इस समय मेरे सामने देवताओं और असुरों के गुरू आप साक्षात् महादेवजी खड़े हैं । 'जिन अमित पराक्रमी महादेवजी देवता भी सुगमतापूर्वक देख नहीं पाते हैं उन्हीं का मुझे प्रत्यक्ष दर्शन मिला है, अत: मुझसे बढ़कर धन्यवाद का भागी दूसरा कौन हो सकता है ? 'अजन्मा, अविनाशी, ज्ञानमय तथा सर्वश्रेष्ठ रूप से विख्यात जो सनातन पर तत्व है, उसका ज्ञानी पुरूष इसी रूप में ध्यान करते हैं (जैसा कि आज मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूं) ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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