महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 56-62

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एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर: एकोनपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 56-62 का हिन्दी अनुवाद


394 रामः- योगीजनों के रमन करने के लिये नित्यानन्दस्वरूप, 395 विरामः- प्रलय के समय प्राणियों को अपने में विराम देने वाले, 396 विरजः- रजोगुण तथा तमोगुण से सर्वथा शून्य, 397 मार्गः- मुमुक्षुजनों के अमर होने के साधनस्वरूप, 398 नेयः-उत्तम ज्ञान से ग्रहण करने योग्य, 399 नयः- सबको नियम में रखने वाले, 400 अनयः- स्वतन्त्र, 401 वीरः- पराक्रमशाली, 402 शक्तिमतां श्रेष्ठः- शक्तिमानों में भी अतिशय शक्तिमान्, 403 धर्मः- धर्मस्वरूप, 404 धर्मविदुत्तमः- समस्त धर्मवेत्ताओं में उत्तम। 405 वैकुण्ठः- परमधामस्वरूप, 406 पुरूषः- विश्वरूप शरीर में शयन करने वाले, 407 प्राणः- प्राणवायुरूप से चेष्टा करने वाले, 408 प्राणदः- सर्ग के आदि में प्राण प्रदान करने वाले, 409 प्रणवः- ओंकारस्वरूप, 410 पृथुः- विराट रुप से विस्तृत होने वाले, 411 हिरण्यगर्भः- ब्रह्मारूप से प्रकट होने वाले, 412 शत्रुघ्नः- देवताओं के शत्रुओं को मारने वाले, 413 व्याप्तः- कारणरूप से सब कार्यों में व्याप्त, 414 वायुः- पवनरूप, 415 अधोक्षजः- अपने स्वरूप से क्षीण न होने वाले।। 57।। 416 ऋतुः- ऋतुस्वरूप, 417 सुदर्शनः- भक्तों को सुगमता से ही दर्शन दे देने वाले, 418 कालः- सबकी गणना करने वाले, 419 परमेष्ठी- अपने प्रकृष्ट महिमा में स्थित रहने के स्वभाववाले, 420 परिग्रहः- शरणार्थियों के द्वारा सब ओर से ग्रहण किये जाने वाले, 421 उग्रः- सूर्यादि के भी भय के कारण, 422 संवत्सरः- सम्पूर्ण भूतों के वासस्थान, 423 दक्षः- सब कार्यों को बड़ी कुशलता से करने वाले, 424 विश्रामः- विश्राम की इच्छा वाले मुमुक्षुओं को मोक्ष देने वाले, 425 विश्वदक्षिणः- बलि के यज्ञ में समस्त विश्व को दक्षिणारूप में प्राप्त करने वाले। 426 विस्तारः- समस्त लोकों के विस्तार के स्थान, 427 स्थावरस्थाणुः- स्वयं स्थितिशील रहकर पृथ्वी आदि, स्थितिशील पदार्थों को अपने में स्थित रखने वाले, 428 प्रमाणम्-ज्ञानस्वरूप होने के कारण स्वयं प्रमाणरूप, 429 बीजमव्ययम्-संसार के अविनाशी कारण, 430 अर्थः- सुखस्वरूप होने के कारण सबके द्वारा प्रार्थनीय, 431 अनर्थः- पूर्णकाम होने के कारण प्रयोजनरहित, 432 महाकोशः- बडे़ खजाने वाले, 433 महाभोगः-यथार्थ सुखरूप महान् भोगवाले, 434 महाधनः- अतिशय यथार्थ धनस्वरूप। 435 अनिर्विण्णः- उकताहटरूप विकार से रहित, 436 स्थविष्ठः- विराट्रूप से स्थित, 437 अभूः- अजन्मा, 438 धर्मयूपः- धर्म के स्तम्भरूप, 439 महामखः- महान् यज्ञस्वरूप, 440 नक्षत्रनेमिः- समस्त नक्षत्रों के केन्द्रस्वरूप, 441 नक्षत्री-चन्द्ररूप, 442 क्षमः- समस्त कार्यों में समर्थ, 443 क्षामः- समस्त जगत् के निवासस्थान, 444 समीहनः- सृष्टि आदि के लिये भलीभाँति चेष्टा करने वाले। 445 यज्ञः- भगवान् विष्णु, 446 इज्यः- पूजनीय, 447 महेज्यः- सबसे अधिक उपासनीय, 448 क्रतुः- स्तम्भयुक्त यज्ञस्वरूप, 449 सत्रम्- सत्पुरूषों की रक्षा करने वाले, 450 सतां गतिः- सत्पुरूषों की परम गति, 451 सर्वदर्शी- समस्त प्राणियों को और उनके कार्यों को देखने वाले, 452 विमुक्तात्मा-सांसारिक बन्धन से नित्यमुक्त आत्मस्वरूप, 453 सर्वज्ञः- सबको जानने वाले, 454 ज्ञानमुत्तमम्- सर्वोत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप। 455 सुव्रतः- प्रणतपालनादि श्रेष्ठ व्रतों वाले, 456 सुमुखः- सुन्दर और प्रसन्न मुखवाले, 457 सूक्ष्मः-अणु से भी अणु, 458 सुघोषः- सुन्दर और गम्भीर वाणी बोलने वाले, 459 सुखदः- अपने भक्तों को सब प्रकार से सुख देने वाले, 460 सुहृत्- प्राणिमात्र पर अहैतु की दवा करने वाले परम मित्र, 461 मनोहरः- अपने रूप लावण्य और मधुर भाषणादि से सबके मन को हरने वाले, 462 जितक्रोधः- क्रोध पर विजय करने वाले अर्थात् अपने साथ अत्यन्त अनुचित व्यवहार करने वाले पर भी क्रोध न करने वाले, 463 वीरबाहुः- अत्यन्त पराक्रमशील भुजाओं से युक्त, 464 विदारणः- अधर्मियों को नष्ट करने वाले।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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