महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 15-21

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एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर: एकोनपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 15-21 का हिन्दी अनुवाद


10 पूतात्मा-पवित्रात्मा, 11 परमात्मा-परमश्रेष्ठ नित्यशुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव, 12 मुक्तानां परमा गतिः-मुक्त पुरूषों की सर्वश्रेष्ठ गतिस्वरूप, 13 अव्ययः-कभी विनाश को प्राप्त न होने वाले, 14 पुरूषः- पुर अर्थात शरीर में शयन करने वाले, 15 साक्षी-बिना किसी व्यवधान के सब कुछ देखने वाले, 16 क्षेत्रज्ञः- क्षेत्र अर्थात् समस्त प्रकृतिरूप शरीर को पूर्णतया जानने वाले, 17 अक्षरः- कभी क्षीण न होने वाले। 18 योगः-मनसहित सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियों के निरोधरूप योग से प्राप्त होने वाले, 19 योगविदां नेता- योग को जानने वाले भक्तों के स्वामी, 20 प्रधानपुरूषेश्वरः- प्रकृति और पुरूष के स्वामी, 21 नारसिंहवपुः- मनुष्य और सिंह दोनों के-जैसाशरीर धारण करने वाले नरसिंहरूप, 22 श्रीमान्-वक्षःस्थल में सदा श्री को धारण करने वाले, 23 केशवः-(क) ब्रह्मा, (अ) विष्णु और (ईश) महादेव- इस प्रकार त्रिमूर्तिस्वरूप, 24 पुरूषोत्तमः- क्षर और अक्षर- इन दोनों से सर्वथा उत्तम। 25 सर्वः-सर्वरूप, 26 शर्वः- सारी प्रजा का प्रलयकाल में संहार करने वाले, 27 शिवः- तीनों गुणों से परे कल्याणस्वरूप, 28 स्थाणुः- स्थिर, 29 भूतादिः- भूतों के आदिकारण, 30 निधिरव्ययः- प्रलयकाल में सब प्राणियों के लीन होने के लिये अविनाशी स्थानरूप, 31 सम्भवः- अपनी इच्छा से भली प्रकार प्रकट होने वाले, 32 भावनः- समस्त भोक्ताओं के फलों को उत्पन्न करने वाले, 33 भर्ता- सबका भरण करने वाले, 34 प्रभवः- उत्कृष्ट (दिव्य) जन्म वाले, 35 प्रभुः- सबके स्वामी, 36 ईश्वरः- उपाधिरहित ऐश्वर्य वाले। 37 स्वयम्भूः- स्वयं उत्पन्न होने वाले, 38 शम्भुः- भक्तों के लिये सुख उत्पन्न करने वाले, 39 आदित्यः- द्वादश आदित्यों में विष्णुनामक आदित्य, 40 पुष्कराक्षः-कमल के समान नेत्रवाले, 41 महास्वनः- वेदरूप अत्यन्त महान् घोषवाले, 42 अनादिनिधनः- जन्म-मृत्यु से रहित, 43 धाता- विश्व को धारण करने वाले, 44 विधाता- कर्म और उसके फलों की रचना करने वाले, 45 धातुरूत्तमः- कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण प्रपंच को धारण करने वाले एवं सर्वश्रेष्ठ। 46 अप्रमेयः- प्रमाणादि से जानने में न आ सकने वाले, 47 हृषीकेशः- इन्द्रियों के स्वामी, 48 पद्मनाभः- जगत् के कारणरूप कमल को अपनी नाभि में स्थान देने वाले, 49 अमरप्रभुः- देवताओं के स्वामी, 50 विश्वकर्मा- सारे जगत् की रचना करने वाले, 51 मनुः- प्रजापति मनुरूप, 52 त्वष्टा- संहार के समय सम्पूर्ण प्राणियों को क्षीण करने वाले, 53 स्थविष्ठः- अत्यन्त स्थूल, 54 स्थविरो ध्रुवः- अति प्राचीन एवं अत्यन्त स्थिर। 55 अग्राह्यः- मन से भी ग्रहण न किये जा सकने वाले, 56 शाश्वतः- सब काल में स्थित रहने वाले, 57 कृष्णः- सबके चित्त को बलात् अपनी ओर आकर्षित करने वाले परमानन्दस्वरूप, 58 लोहिताक्षः- लाल नेत्रों वाले, 59 प्रतर्दनः- प्रलयकाल में प्राणियों का संहार करने वाले, 60 प्रभूतः- ज्ञान, ऐश्वर्य आदि गुणों से सम्पन्न, 62 त्रिककुब्धाम- ऊपर-नीचे और मध्यभेदवाली तीनों दिशाओं के आश्रयरूप, 62 पवित्रम्-सबको पवित्र करने वाले, 63 मंगलं परम्-परम मंगलस्वरूप। 64 ईशानः- सर्वभूतों के नियन्ता, 65 प्राणदः- सबके प्राणदाता, 66 प्राणः- प्राणस्वरूप्, 67 ज्येष्ठः-सबके कारण होने से सबसे बडे़, 68 श्रेष्ठः- सबमें उत्कृष्ट होने से परम श्रेष्ठ, 69 प्रजापतिः- ईश्वररूप से सारी प्रजाओं के स्वामी, 70 हिरण्यगर्भः- ब्रह्माण्डरूप हिरण्यमय अण्ड के भीतर ब्रह्मारूप से व्याप्त होने वाले, 71 भूगर्भः- पृथ्वी को गर्भ में रखने वाले, 72 माधवः- लक्ष्मी के पति, 73 मधुसूदनः- मधुनामक दैत्य को मारने वाले।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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