महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 149 श्लोक 110-115

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एकोनपन्चाशदधिकशततम (149) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर: एकोनपन्चाशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 110-115 का हिन्दी अनुवाद


906 अरौद्रः- सब प्रकार के रूद्र (क्रूर) भावों से रहित शान्तिमूर्ति, 907 कुण्डली- सूर्य के समान प्रकाशमान मकराकृति कुण्डलों को धारण करने वाले, 908 चक्री-सुदर्शनचक्र को धारण करने वाले, 909 विक्रमी- सबसे विलक्षण पराक्रमशील, 910 ऊर्जितशासनः- जिनका श्रुति- स्मृतिरूप शासन अत्यन्त श्रेष्ठ है- ऐसे अतिश्रेष्ठ शासन करने वाले, 911 शब्दातिगः- शब्द की जहाँ पहुँच नहीं, ऐसे वाणी के अविषय, 912 शब्दसहः- कठोर शब्दों को सहने करने वाले, 913 शिशिरः- त्रितापपीडि़तों को शान्ति देने वाले शीतलमूर्ति, 914 शर्वरीकरः- ज्ञानियों की रात्रि संसार और अज्ञानियों की रात्रि ज्ञान- इन दोनों को उत्पन्न करने वाले। 915 अक्रूरः- सब प्रकार के क्रूरभावों से रहित, 916 पेशलः- मन, वाणी और कर्म-सभी दृष्टियों से सुन्दर होने के कारण परम सुन्दर, 917 दक्षः- सब प्रकार से समृद्ध, परमशक्तिशाली और क्षणमात्र में बड़े-से-बड़ा कार्य कर देने वाले महान् कार्यकुशल, 918 दक्षिणः- संहारकारी, 919 क्षमिणां वरः- क्षमा करने वालों में सर्वश्रेष्ठ, 920 विद्वत्तमः- विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ परम विद्वान, 921 वीतभयः- सब प्रकार के भय से रहित, 922 पुण्यश्रवणकीर्तनः- जिनके नाम, गुण, महिमा और स्वरूप का श्रवण ओर कीर्तन परम पावन हैं, ऐसे। 923 उत्तारणः- संसार-सागर से पार करने वाले, 924 दुष्कृतिहा- पापों का और पापियों का नाश करने वाले, 925 पुण्यः- स्मरण आदि करने वाले समस्त पुरूषों को पवित्र कर देने वाले, 926 दुःस्वप्ननाशनः- ध्यान, स्मरण, कीर्तन और पूजन करने से बुरे स्वप्नों का नाश करने वाले, 927 वीरहा- शरणागतों की विविध गतियों का यानी संसार-चक्र का नाश करने वाले, 928 रक्षणः- सब प्रकार से रक्षा करने वाले, 929 सन्तः- विद्या, विनय और धर्म आदि का प्रचार करने के लिये संतों के रूप में प्रकट होने वाले, 930 जीवनः- समस्त प्रजा को प्राणरूप से जीवित रखने वाले, 931 पर्यवस्थितः- समस्त विश्व को व्याप्त करके स्थित रहने वाले। 932 अनन्तरूपः- अमितरूपवाले, 933 अनन्तश्रीः- अपरिमित शोभासम्पन्न, 934 जितमन्युः- सब प्रकार से क्रोध को जीत लेने वाले, 935 भयापहः- भक्तभयहारी, 936 चतुरस्त्रः- मंगलमूर्ति, 937 गभीरात्मा- गम्भीर मनवाले, 938 विदिशः- अधिकारियों को उनके कर्मानुसार विभागपूर्वक नाना प्रकार के फल देने वाले, 939 व्यादिशः- सबको यथायोग्य विविध आज्ञा देने वाले, 940 दिशः- वेदरूप से समस्त कर्मों का फल बतलाने वाले। 941 अनादिः- जिसका आदि कोई न हो ऐसे सबके कारणस्वरूप, 942 भूर्भुवः- पृथ्वी के भी आधार, 943 लक्ष्मीः- समस्त शोभायमान वस्तुओं की शोभास्वरूप, 944 सुवीरः- उत्तम योधा, 945 रूचिरांगदः- परम रूचिकर कल्याणमय बाजूबंदों को धारण करने वाले, 946 जननः- प्राणिमात्र को उत्पन्न करने वाले, 947 जनजन्मादिः- जन्म लेने वालों के जन्म के मूल कारण, 948 भीमः- दुष्टों को भय देने वाले, 949 भीमपराक्रमः- अतिशय भय उत्पन्न करने वाले, पराक्रम से युक्त। 950 आधारनिलयः- आधारस्वरूप पृथ्वी आदि समस्त भूतों के स्थान, 951 अधाता- जिसका कोई भी बनाने वाला न हो ऐसे स्वयं स्थित, 952 पुष्पहासः- पुष्प की भाँति विकसित हास्यवाले, 953 प्रजागरः- भली प्रकार जाग्रत् रहने वाले नित्यप्रबुद्ध, 954 ऊर्ध्वगः- सबसे ऊपर रहने वाले, 955 सत्पथाचारः- सत्पुरूषों के मार्ग का आचरण करने वाले मर्यादापुरूषोत्तम, 946 प्राणदः- परीक्षित् आदि मरे हुओं को भी जीवन देने वाले, 957 प्रणवः- ऊँकारस्वरूप, 958 पणः- यथायोग्य व्यवहार करने वाले।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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