महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 146 श्लोक 19-36

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षट्चत्वारिंशदधिकशततम (146) अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर: षट्चत्वारिंशदधिकशततमअध्याय: श्लोक 19-36 का हिन्दी अनुवाद


ये समस्त तीर्थों से सेवित तथा सम्पूर्ण सरिताओं में श्रेष्ठ देवनदी गंगा देवी भी, जो आकाश से पृथ्वी पर उतरी हैं, यहाँ विराजमान हैं। ऐसा कहकर देवाधिदेव महादेवजी की पत्नी, धर्मात्माओं में श्रेष्ठ, धर्मवत्सला,देवमहिषी उमा ने स्त्रीधर्म के ज्ञान में निपुण गंगा आदि उन समस्त श्रेष्ठ सरिताओं को मन्द मुसकान के साथ सम्बोधित करके उनसे स्त्रीधर्म के विषय में प्रश्न किया। उमा बोलीं- हे समस्त पापों का विनाश करने वाली, ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न पुण्यसलिला श्रेष्ठ नदियो! मेरी बात सुनो। भगवान शिव ने यह स्त्रीधर्मसम्बन्धी प्रश्न उपस्थित किया है। उसके विषय में मैं तुम लोगों से सलाह लेकर ही भगवान शंकर से कुछ कहना चाहती हूँ। समुद्रगामिनी सरिताओ! पृथ्वी पर या स्व्र्ग में मैं किसी का भी ऐसा कोई विज्ञान नहीं देखती, जिसे उसने अकेले ही- दूसरों का सहयोग लिये बिना ही सिद्ध कर लिया हो, इसीलिये मैं आप लोगों से सादर सलाह लेती हूँ। इस प्रकार उमा ने जब समस्त कल्याणस्वरूपा परम पुण्यमयी श्रेष्ठ सरिताओं के समक्ष यह प्रश्न उपस्थित किया, तब उन्होंने इसका उत्तरदेने के लिये देवनदी गंगा को सम्मानपूर्वक नियुक्त किया। पवित्र मुसकानवाली गंगाजी अनेक बुद्धियों से बढ़ी-चढ़ी, स्त्री-धर्म को जानने वाली, पाप-भय को दूर करने वाली, पुण्यमयी, बुद्धि और विनय से सम्पन्न, सर्वधर्मविशारद तथा प्रचुर बुद्धि से संयुक्त थीं। उन्होंने गिरिराजकुमारी उमादेवी से मन्द-मन्द मुसकरकाते हुए कहा। गंगाजी ने कहा- देवि! धर्मपरायणे! अनघे! मैं धन्य हूँ। मुझ पर आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है, क्योंकि आप सम्पूर्ण जगत् की सम्माननीया होने पर भी एक तुच्छ नदी को मान्यता प्रदान कर रही हैं। जो सब प्रकार से समर्थ होकर भी दूसरों से पूछता तथा उन्हें सम्मान देता है और जिसके मन में कभी दुष्टता नहीं आती, वह मनुष्य निस्संदेह पण्डित कहलाता है। जो मनुष्य ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न् और ऊहापोप में कुशल दूसरे-दूसरे वक्ताओं से अपना संदेह पूछता है, वह आपत्ति में नहीं पड़ता है। विशेष बुद्धिमान पुरूष सभा में औरतरह की बात करता है और अहंकारी मनुष्य और ही तरह की दुर्बलतायुक्त बातें करता है। देवि! तुम दिव्य ज्ञान से सम्पन्न और देवलोक में सर्वश्रेष्ठ हो। दिव्य पुण्यों के साथ तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ है। तुम्हीं हम सब लोगों को स्त्री-धर्म का उपदेश देने के योग्य हो। तदनन्तर गंगाजी के द्वारा अनेक गुणों का बखान करके पूजित होने पर देवसुन्दरी देवी उमा ने सम्पूर्ण स्त्री-धर्म का पूर्णतः वर्णन किया।उमा बोलीं- स्त्री-धर्म का स्वरूप मेरी बुद्धि में जैसा प्रतीत होता है, उसे मैं विधिपूर्वक बताऊँगी। तुम विनय और उत्सुकता से युक्त होकर इसे सुनो। विवाह के समय कन्या के भाई-बन्धु पहले ही उसे स्त्री-धर्म का उपदेश कर देते हैं। जबकि वह अग्नि के समीप अपने पति की सहधर्मिणी बनती है। जिसके स्वभाव, बातचीत और आचरण उत्तम हों, जिसको देखने से पति को सुख मिलता हो, जो अपने पति के सिवा दूसरे किसी पुरूष में मन नहीं लगाती हो और स्वामी के समक्ष सदा प्रसन्नमुखी रहती हो, वह स्त्री धर्माचरण करने वाली मानी गयी है। जो साध्वी स्त्री अपने स्वामी को सदा देवतुल्य समझती है, वही धर्मपरायणा और वही धर्म के फल की भागिनी होती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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