महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 13 भाग-4
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त्रयोदश (13) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
तब मैंने हाथ जोड़ पवित्र हो उपर्युक्त बात कहने वाले सर्वव्यापी देवाधिदेव भगवान परम पुरूष को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और इस प्रकार कहा - ‘महाबाहो ! आपका यह कथन ठीक है । यह सब कुछ आकपी आज्ञा के अनुसार ही होगा । आप मुझे जैसा आदेश दे रहे हैं, उसके अनुसार मैं आपका वाहन अवश्य होउंगा । आप रथपर विराजमान होंगे, उस समय मैं आपकी ध्वजापर स्थित रहूंगा, इसमें संशय नहीं है’। तब भगवान मुझसे ‘तथास्तु’ कहकर वे अपनी इच्छा के अनुसार चले गये। साधुशिरोमणियो ! तदनन्तर उन अनिर्वचनीय देवताओं वार्तालाप करके मैं कौतूहलवश अपने पिता कश्यपजी के पास गया। पिता के पास पहुंचकर मैंने उनके चरणों में प्रणाम किया और यह सारा वृतान्त उनसे यथावत् रूप से कह सुनाया। यह सुनकर मेरे पूज्यपाद पिताने ध्यान लगाया। दो घड़ी तक ध्यान करके वे वक्ताओं में श्रेष्ठ मुनि मुझसे बोल –‘तात ! मैा धन्य हूं, भगवान की कृपा का पात्र हूं, जिसके पुत्र होकर तुमने उन महामनस्वी गुहृय परमात्मा से वार्तालाप कर लिया। मैंने अनन्य भाव से मन को एकाग्र करके उग्र तपस्या द्वारा उन महातेजस्वी तपस्या की निधिरूप (प्रतापी) श्रीहरि को संतुष्ट किया था। बेटा ! तब मुझे संतुष्ट करते हुए-से भगवान श्री हरि ने मुझे दर्शन दिया ।
उनके विभिन्न अंगों की कान्ति श्वेत, पीत, अरूण, भूरी, कपिश और पिंगल वर्ण की थी। वे लाल, नीले ओर काले –जैसे भी दीखते थे। उनके सहस्त्रों उदर ओर हाथ थे । उनके महान् मुख दो सहस्त्र की संख्या में दिखायी देते थे । वे एक नेत्र तथा सौ नेत्रों से युक्त थे ।। उन विश्वात्मा को निकट पाकर मैंने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और ऋक्र, यजु: तथा साम मंत्रों से उनकी स्तुति करके मैं उन शरणागतवत्सल देवकी की शरण में गया। बेटा गरूड ! सबका हित चाहने वाले उन विश्वाधिकारी अन्तर्यामी परमात्देव से तुमने वार्तालाप किया है, अत: शीघ्र उन्हीं की आराधना करो। उनकी आराधना करके तुम कभी कष्ट में नहीं पड़ोगे’। ब्रह्मर्षिशिरोमणियों ! इस प्रकार अपने पूज्य पिता के यथोचितरूप से समझाने पर मैा अपने घर को गया। पिता से विदा ले अपने घर आकर मैं उन्हीं परमात्मा के ध्यान में मन लगाकर उन्हीं का चिन्तन करने लगा। मेरा भाव भक्ति से युक्त मन उन्हीं की भावना में लगा हुआ था। मेरा चित्त उनका चिन्तन करते-करते तदाकार हो गया था।
इस प्रकार मैं उन सनातन अविनाशी परम पुरूष गोविन्द के चिन्तन में तत्पर हो बैठा रहा। ऐसा करेन से मेरा हृदय नारायण के दर्शन की इच्छा से स्थिर हो गया ओर मैं मन एवं वायु के समान वेगशाली हो महान् वेग का आश्रय ले रमणीय बदरीविशाल तीर्थ में भगवान नारायण के आश्रम पर जा पहुंचा। तदनन्तर वहां जगत् की उत्पति के कारणभूत सर्वव्यापी कमलनयन श्रीगोविन्द हरि का दर्शन करके मैं उन्हें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और बड़ी प्रसन्नता के साथ ऋक्, यजु: एवं सामन्त्रों के द्वारा उनका स्तवन किया। तब मैं मन-ही-मन उन सनातन देवदेव की शरण में गया ओर हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला -‘भगवान ! भूत और भविष्य के स्वामी, वर्तमान भूतों के निर्माता, शत्रुदमन, अविनाशी ! मैं आपकी शरण में आया हूं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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