महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 117 श्लोक 17-29

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सप्तदशाधिकशततम (117) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: सप्तदशाधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद

कीड़े ने कहा- महाप्रज्ञ ! जीन सभी योनियों में सुख का अनुभव करते हैं। मुझे भी इस योनि में सुख मिलता है औश्र यही सोचकर जीवित रहना चाहता हूँ। यहाँ भी इस शरीर के अनुसार सारे विषय उपलब्ध होते हैं। मनुष्यों और स्थावर प्राणियों के भोग अलग-अलग हैं। प्रभो ! पहले जन्म में मैं एक मनुष्य, उसमें भी बहुत धनी शूद्र हुआ था। ब्राह्मणों के प्रति मेरे मन में आदर का भाव न था। मैं कंजूस, क्रूर और व्याजखोर था। सबसे तीखे वचन बोलना, बुद्धिमानी के साथ लोगों को ठगना और संसार के सभी लोगों से द्वेष रखना, यह मेरा स्वभाव हो गया था। झूठ बोलकर लोगों को धोखा देना और दूसरों के माल को हड़प लेने में संलग्न रहना- यही मेरा काम था। मैं इतना निर्दयी था कि केवल स्वाद लाने की कामना से अकेला ही भोजन की इच्छा रखता और ईष्र्यावश घर पर आये हुए अतिथियों और आश्रितजनों को भोजन कराये बिना ही भोजन कर लेता था। पूर्वजन्म में मैं देवताओं और पितरों के यजन के लिये श्रद्धा पूर्वक अन्न एकत्र करता; परंतु धन संग्रह की कामना से उस देने योग्य अन्न का भी दान नहीं करता था। भय के समय अभय पाने की इच्छा से कितने ही शरणार्थी मेरे पास आते, किन्तु मैं उन्हें शरण लेने योग्य सुरक्षित स्थान में पहुँचाकर भी अकस्मात वहाँ से निकाल देता। उनकी रक्षा नहीं करता था। दूसरे मनुष्यों के पास धन-धान्य, सुन्दरी स्त्री, अचछी-अच्छी सवारियाँ, अद्भुत वस्त्र और उत्तम लक्ष्मी देखकर मैं अकारण ही उनसे कुढ़ता रहता था। दूसरों का सुख देखकर मुझे ईष्र्या होती थी, दूसरे किसी की उन्नति हो यह मैं नहीं चाहता था, औरों के धर्म, अर्थ और काम में बाधा डालता और अपनी ही इच्दा का अनुसरण करता था। पूर्वजन्म में प्रायः मैंने वे ही कर्म किये हैं, जिनमें निर्दयता अधिक थी। उनकी याद आने से मुझे उसी तरह पश्चाताप होता है, जैसे कोई अपने प्यारे पुत्र को त्याग कर पछताता है। मुझे पहले के अपने किये हुए शुभकर्मों के फल का अब तक अनुभव नहीं हुआ है। पूर्वजन्म में मैंने केवल अपनी बूढ़ी माता की सेवा की थी तथा एक दिन किसी के साथ हो जाने से अपने घर पर आये हुए ब्राह्मण अतिथि का जो अपने जातीय गुणों से सम्पन्न थे, स्वागत-सत्कार किया था। ब्रह्मन ! उसी पुध्य के प्रभाव से मुझे आज तक पूर्वजन्म की स्मृति छोड़ न सकी है। तपोधन ! अब मैं पुनः किसी शुभ कर्म के द्वारा भविष्य में सुख पाने की आशा रखता हूँ। वह कल्याणकारी कर्म क्या है, इसे मैं आपके मुख से सुनना चाहता हूँ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत अनुशासनपर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में कीट का उपाख्यान विषयक एक सौ सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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