भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-148

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भागवत धर्म मिमांसा

11. ब्रह्म-स्थिति

(28.6) तथापि संगः परिवर्जनीयो
गुणेषु माया-रचितेषु तावत् ।
मद्भक्ति-योगेन दृढेन यावद्
रजो निरस्येत मनृःकषायः ।।[१]

जब तक मेरे दृढ़ भक्तियोग से रजोगुण निरस्त नहीं होता, तब तक गुणों का संग छोड़ देना चाहिए, क्योंकि माया से रचित गुणों की संगति परिवर्जनीय है। जब तक रजोगुण का निरसन नहीं होता, तब तक सावधान रहना चाहिए। कब तक सावधान रहना चाहिए। जब तक मनः कषायः – मन का मैल, चित्त का मैल नहीं गया तब तक। वह कैसे जायेगा? मद्भक्तियोगेन दृढेन – मेरे दृढ़ भक्तियोग से। भगवान् की भक्ति बढ़ाते जाना चाहिए। उससे चित्त का मैल धुल जायेगा और रजोगुण का निरसन होगा। यहाँ भगवान् खतरे की सूचना दे रहे हैं। पहले बताया, चाहे इन्द्रियाँ विक्षिप्त हो जाएँ या शान्त, उससे ज्ञानी को कोई हानि-लाभ नहीं। फिर कह रहे हैं कि ‘मनःकषायः’ – रजोगुण जब तक परास्त नहीं होता, तब तक सावधान रहना चाहिए। ज्ञानदेव महाराज ने कहा है :

तैसीं प्राप्तेंहि पुरुषें इंद्रियें लाळिलीं जरी कौतुकें ।
तरी आक्रमिला जाण दुःखें । सांसारिकें ।।

प्राप्त अर्थात् पहुँचे हुए पुरुष का कर्तव्य ज्ञानदेव महाराज बता रहे हैं – उसने इन्द्रियों का सहज लालन किया, तो भी उस पर सांसारिक दुःखों का अक्रमण होगा। इसलिए प्राप्त पुरुषों को भी इन्द्रियों से सावधान रहना चाहिए। मैं तैरना सीख रहा था। एक दिन हाथ-पाँव मारते-मारते किनारे पहुँच गया। हाथ किनारे लगते ही मैंने पाँव मारना छोड़ दिया, तो बहने लगा। हाथ किनारे लगने से ही हम किनारे पहुँच गये, ऐसा नहीं। जब तक पाँव किनारे नहीं लगते, तब तक हम सुरक्षित नहीं। सारांश, जब तक पूर्ण स्थिरता नहीं आती, तब तक सावधान रहना चाहिए। ज्ञानेश्वर महाराज के इस वचन का संस्कृत रूपान्तर करें, तो वह यह होगा :

प्राप्तेनापि पुरुषेण यदि
इन्द्रियाणि कौतुकेन लालितानि ।।
सांसारिकेन दुःखेन आक्रान्त
भविष्यति इति विद्धि ।।

यहाँ भागवत समाप्ति पर है। ये आखिर-आखिर के श्लोक हैं। इनमें ब्रह्म-स्थिति का वर्णन है। अभी तो हमारी देह-स्थिति चल रही है। कभी कोई मनःस्थिति में होता है, तो कभी कोई इन्द्रिय-स्थिति में। ऐसी भिन्न-भिन्न प्रकार की स्थितियाँ हुआ करती हैं। पर मनुष्य जब ब्रह्म-स्थिति में आयेगा, तो उसकी व्यवहार-दृष्टि कैसी रहेगी? इसका वर्णन इन श्लोकों में किया जा रहा है :


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.28.27

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