भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 65

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अध्याय -1
अर्जुन की दुविधा और विषाद

युद्ध मनुष्य-जाति के लिए दण्ड भी है और साथ ही साथ उसे स्वच्छ करने का साधन भी। परमात्मा निर्णायक होने के साथ-साथ उद्धारक भी है। वह संहार करता है। वह शिव और विष्णु है। ममकाः: मेरे लोग[१]। यह ममत्व अर्थात् मेरा होने की भावना अहंकार का परिणाम है, जो सारी बुराई की जड़ है। यहाँ कौरवों के ममकार या स्वार्थ-भावना को स्पष्ट किया गया है, जिसके कारण सत्ता और प्रभुत्व के प्रति लोभ बढ़ता है। संजयः संजय अन्धे राजा धृतराष्ट्र का सारथी है और वह राजा को युद्ध की घटनाएं सुनाता है। दो सेनाएं

                        
2.दृष्ट्वा तु पाण्डवानी कं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ।।

संजय ने कहा:तब राजा दुर्योधन पाण्डवों की सेना को व्यूह-रचना में खड़े देखकर अपने आचार्य के पास पहुँचा और बोलाः आचार्य: गुरु, जो शास्त्रों का अर्थ जानता है, उसे दूसरों को सिखाता है और उस शिखा पर स्वंय आचरण करता है। द्रोणाचार्य ने कौरवों और पाण्डवों, दोनों पक्षों के राजकुमारों को ही युद्ध विद्या सिखाई थी।

3.पश्यैतां पाण्डुपुत्राणमाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां दु्रपदपुत्रेण तब शिष्येण धीमता ।।

आचार्य, पांडु के पुत्रों की इस विशाल सेना को देखिए, जिसकी व्यूह-रचना आपके बुद्धिमान शिष्य धृतद्युम्न (द्रुपद के पुत्र) ने की है।[२]

4.अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च दुपदश्च महारथः।।

यहाँ पर बडे़-बडे़ धनुर्धारी योद्धा खडे़ हैं, जो युद्ध में भीम और अर्जुन के समान हैं-युयुधान, विराट् और महारथी दु्रपद।[३]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ममेति कायन्तीति मामकाः, अविद्यापुरुषाः । - अभिनवगुप्त ।
  2. धृष्टद्युम्न पांचाल के राजा दु्रपद का पुत्र है।
  3. भीम युधिष्ठिर का प्रधान सेनापति है, यद्यपि कहने के लिए यह पद धृष्टद्युम्न को दे दिया गया है। अर्जुन कृष्ण का मित और पाण्डवों का महान् योद्धा है। युयुधान कृष्ण का सारथी है, जिसे सात्यकि भी कहा जाता है। विराट् वह राजा है, जिसके राज्य में पाण्डव लोग कुछ समय तक गुप्त रूप से रहे थे।

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