भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 235

अद्‌भुत भारत की खोज
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अध्याय-17
धार्मिक तत्व पर लागू किए गए तीनों गुण श्रद्धा के तीन प्रकार

   
अर्जुन उवाच
1.ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तुका कृष्ण सत्वमाहो रजस्तमः।।
अर्जुन ने कहा:हे कृष्ण, जो लोग शास्त्रों के विधानों की परवाह न करते हुए श्रद्धा से युक्त होकर यज्ञ करते हैं, उनकी क्या स्थिति हाती है? उनकी श्रद्धा सात्विक होती है या रासिक या तामसिक?ये लोग जान-बूझकर शास्त्रों के नियमों का उल्लंघन नहीं करते, अपितु इन्हें उन नियमों का ज्ञान नहीं होता। शंकराचार्य का कथन है कि व्यक्ति की श्रद्धा का प्रकार उसकी शास्त्रों के विधानों के साथ अनुकूलता या प्रतिकूलता पर निर्भर नहीं होता, अपितु उस व्यक्ति के चरित्र और उसके द्वारा अपनाई गई उपासना पर आधारित होता है।रामानुज ने अपेक्षाकृत कम उदार दृष्टिकोण अपनाया है और उसका विचार है कि जो लोग अज्ञान के कारण अथवा जान-बूझकर उपेक्षा के कारण शास्त्रों का उल्लंघन करते हैं, चाहे वे श्रद्धावान् हों या श्रद्धाहीन, वे निन्दनीय हैं।

श्रीभगवानुवाच
2.त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्विकी राजसी चैव तामसी चैति तां श्रृणु।।
श्री भगवान् ने कहा:प्राणियों की श्रद्धा उनके स्वभाव के अनुसार सात्विक, राजसिक और तामसिक होती है। अब इसके विषय में सुन।

3.सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोअयं पुरुषो यो यच्छद्धः स एव सः।।
हे भारत (अर्जुन), प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वभाव के अनुसार होती है। मनुष्य श्रद्धामय होता है; जिसकी जैसी श्रद्धा होती है, वह ठीक वही होता है।
यहां पर लेखक उन कुछ प्रश्नां पर विचार करता है, जो सम्भवतः उसके काल में बहुत रुचिकर विषय थे। ये प्रश्न श्रद्धा, भोजन, यज्ञ, तपस्या, दान, संन्यास और त्याग के बारे में हैं।सत्व: स्वभाव, प्रकृति। श्रद्धा किसी विश्वास को स्वीकार कर लेने का नाम नहीं है। यह तो किसी निश्चित आदर्श के लिए मन की शक्तियां के एकाग्रीकरण द्वारा आत्मा को प्राप्त करने का प्रयत्न है।श्रद्धा मानवता पर पड़ने वाला आत्मा का दबाव है। यह वह शक्ति है, जो मानवता को, न केवल ज्ञान की दृष्टि से, अपितु आध्यात्मिक जीवन की समूची व्यवस्था की दृष्टि से उत्कृष्टतर की ओर बढ़ने की पे्ररणा देती है। सत्य की आन्तरिक अनुभूति के रूप मे आत्मा उस लक्ष्य की ओर संकेत करती है, जिस पर पूरा प्रकाश बाद में पड़ता है।अन्ततोगत्वा किसी भी धार्मिक विश्वास का अन्तिम और अविवाद्य प्रमाण विश्वास करने वाले के हृदय का साक्ष्य ही है।एक लोकप्रिय श्लोक में कहा गया है कि धर्म जिन लक्ष्यों को हमारे सम्मुख प्रस्तुत करता है, वे व्यक्ति की अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार सिद्धिदायक होते हैं।[१] भागवत में कहा है कि उपासना का फल उपासक की श्रद्धा के अनुसार ही होता है।[२] जो कुछ हम हैं, वह अपने अतीत के कारण हैं और हम अपने भविष्य का निर्माण कर सकते हैं। प्लेटो से तुलना कीजिए: ’’अपनी इच्छाओं का रुझान और हमारी आत्माओं का स्वभाव जैसा-जैसा होता है, हममें से प्रत्येक ठीक वैसा ही बन जाता है।’’[३] गेटे से तुलना कीजिएः ’’केवल निष्ठा ही जीवन को शाश्वत बनाती है।’’

4.यजन्ते सात्विका देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।।
सात्विक मनुष्य देवताओं की पूजा करते हैं; राजसिंक मनुश्य यक्षों और राक्षसों की पूजा करते हं और तामसिक मनुष्य आत्माओं (प्रेतों) और भूतों की पूजा करते हैं।
तमोमय मनुष्य वे हैं, जो मृतकों और भूत-प्रेतों की पूजा-पद्धति को चलाते हैं।

5.अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाकरसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः।।
वे लोग प्रदर्शनप्रिय और अहंकारपूर्ण और काम-वासना और राग (किसी वस्तु की लालसा) की शक्ति से प्रेरित होकर उग्र तपों को करते हैं, जो कि शास्त्रों द्वारा विहित नहीं हैं।

6.कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तः शरीरस्थं तान्विद्धद्यासरुनिश्चान्।
अपनी मूर्खता के कारण वे अपने शरीर में विद्यमान तत्वों के समूह को सताते हें और शरीर के अन्दर निवास करने वाले मुझको भी सताते हैं। इन लोगों को तू आसुरीय संकल्प वाला समझ, यहां कुछ लोगों द्वारा प्रदर्शन के उद्रदेश्य से वालों के कुत्ते पहनने, या शरीर को कीलों से छेदने इत्यादि की अपने-आप को कष्ट देने की पद्धतियों की निन्दा की गई है। कई बार शारीरिक दुर्बलता के कारण मतिभ्रम उत्पन्न हो जाते हैं, जिन्हें कि गलती से आत्मिक दिव्य दृष्टि समझ लिया जाता है। आत्म -अनुशासन को गलती से शारीरिक यन्त्रणा नहीं समझ लिया जाना चाहिए। इसके साथ गौतम बुद्ध की चेतावनी की तुलना कीजिए: ’’तपस्या का आदत के अनुसार पड़ा हुआ अभ्यास, या अपने-आप को जड़ बना देने का अभ्यास, जो कष्टदायक, अनुचित और लाभरहित है, नहीं किया जाना चाहिए।’’[४] शरीर का सच्चा अनुशासन स्वच्छता इत्यादि के अभ्यास द्वारा होता है, जो श्लोक 14 में दिया गया है।

तीन प्रकार का भोजन
7.आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषा भेदमिमं श्रृणु।।
भोजन भी, जो कि सबको प्रिय है, तीन प्रकार का होता है। इसी प्रकार यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं। तू इनका भेद सुन।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मन्त्रे तीर्थे द्विजे देवे दैवज्ञे च भेषजे गुरौ। यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी।।
  2. श्रद्धानुरूपं फलहेतुकत्वात्। 8, 17
  3. लौज, 904 सी।
  4. धम्मचक्कप्पवत्तनसुत्त।

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