भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 216

अद्‌भुत भारत की खोज
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अध्याय-13
शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है, और इन दोनों में अन्तर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ

   
क्षेत्र के अवयव
4.ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्धिर्विनिश्चितैः।।
ऋषियों द्वारा विविध मन्त्रों में इसका गान अनेक ढंग से और पृथक् रूप से किया गया है और इसका वर्णन उचित तर्क वाले और निश्चायक अभिव्यक्ति वाले ब्रह्मसूत्रों द्वारा भी किया गया है।यहां गीता से यह बात ध्वनित होती है कि इसमें उन्हीं सत्यों का प्रतिपादन किया गया है जो वेदों, उपनिषदों, और बादरायण द्वारा रचित ब्रह्मसूत्रों में पहले से ही विद्यमान हैं। वैदिक मन्त्रों को छनद कहा जाता है।

5.महाभूतान्यहकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पच्च चेन्द्रियगोचराः।।
महान् पांच तत्व, अहंकार, बुद्धि और साथ ही अव्यक्त, दस इन्द्रियां और मन और पांच इन्द्रियों के विषय;ये क्षेत्र के अवयव हैं, अनुभव की अन्तर्वस्तु, सांख्य-दर्शन के चैबीस मूल तत्व। मानसिक और भौतिक के वेद वस्तु- रूपात्मक तत्व से सम्बन्धित हैं। वे स्वयं क्षेत्र के अन्तर्गत ही भेद हैं।शरीर, इन्द्रियों के वे रूप, जिनके द्वारा हम कर्ता को पहचानते हैं, वस्तु-रूपात्मक पक्ष से सम्बन्धित हैं। अहंकार एक कृत्रिम रचना है, जो चेतन अनुभव से पृथक् हो जाने से उत्पन्न होता है। दर्शन करने वाली चेतना वही है, चाहे वह नील आकाश को आलोकित करे, या किसी लाल फूल को। जिन क्षेत्रों को आलोकित किया जा रहा है, वे भले ही विभिन्न हों, परन्तु उन्हें आलोकित करने वाला प्रकाश वह एक ही है।
 
6.इच्छा द्वेषः सुखं दुःख संघातश्चेतना धृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।
इच्छा और द्वेष, सुख और दुःख, स्थूल देह का पिण्ड (शरीर), बुद्धि और स्थिरता, यह संक्षेप में उसके विकारों समेत क्षेत्र का वर्णन है। मानसिक रुझानों को भी क्षेत्र की विशेषता बताने वाला कहा गया है, क्योंकि वे भी ज्ञान के विषय हैं।जनने वाला कर्ता है और उसे किसी पदार्थ या वस्तु के रूप में बदल देने का अर्थ है- अज्ञान, अविद्या। वस्तु- रूपात्मीकरण का अर्थ है कर्ता को वस्तुओं के जगत् में ढकेल देना। वस्तु-जगत् में कुछ भी ऐसा नहीं है, जो प्रामाणिक वास्तविकता हो। हम अपने अन्दर विद्यमान कर्ता को केवल वस्तु-जगत् की हमको दास बनाने वाली शक्ति पर विजय प्राप्त करके और उसमें घुल-मिल जाने से इनकार करके ही प्राप्त कर सकते हैं। इसका अर्थ है प्रतिरोध, कष्ट। आसपास के जगत् और उसकी रूढ़ियों से सहमत हो जाना कष्ट को कम कर देता है; और इससे इनकार करने से कष्ट बढ़ता है। कष्ट ही वह प्रक्रिया है, जिसमें से गुजरकर हम अपनी सच्ची प्रकृति के लिए संघर्ष करत हैं।
 
ज्ञान
7.अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासंन शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः।।
विनय (अभिमान का अभाव), ईमानदारी (छल-कपट का अभाव,) अहिंसा, सहनशीलता, सरलता, गुरु की सेवा, शुद्धता (शरीर की और मन की), स्थिरता और आत्मसंयम।
 
8.इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।
इन्द्रियों के विषयों से वैराग्य, अहंकारशून्यता और जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था, बीमारी और दुःख की बुराइयों को समझनाः;
 
9.असक्तिरनभिष्वग पुत्रदारगृहादिशु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।।
अनासक्ति, पुत्र-पत्नी-घर इत्यादि के साथ मोह न होना और सब अभीष्ट और अनभीष्ट घटनाओं के प्रति निरन्तर समानचित्तता का भाव;

10.मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्तमरतिर्जनसंसदि।।
अनन्य रूप से अनुशासित भाव से मेरे प्रति अवचिल भक्ति, एकान्त स्थान में निवास करना और जनसमुदाय के प्रति अरुचि;
 
11.अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञांन तदतोअन्यथा।।
निरन्तर आत्मा के ज्ञान में मग्न रहना, सत्य के ज्ञान के उद्देश्य की अन्तर्दृष्टि - यह (सच्चा) ज्ञान कहा गया है; और जो कुछ इससे भिन्न है, वह अज्ञान है।गुणों की इस सूची से यह स्पष्ट है कि ज्ञान के अन्तर्गत नैतिक गुणों के अभ्यास का भी समावेश है। केवल सैद्धान्तिक अध्ययन से काम नहीं चलेगा।[१] नैतिक गुणों के विकास द्वारा नित्य अपरिवर्तनशील आत्मा का प्रकाश, जो सबको साक्षी-रूप से देख रहा है, परन्तु किसी में आसक्त नहीं है, नश्वर रूपों से पृथक् पहचाना जाता है और उसके साथ नश्वर रूपों का घपला नहीं होता ।
 


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। कठोपनिषद्, 2, 22; मुण्डकोपनिषद् 3, 2-3

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