भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 205

अद्‌भुत भारत की खोज
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अध्याय-11
भगवान् का दिव्य रूपान्तर अर्जुन भगवान् के सार्वभौमिक (विश्व) रूप को देखना चाहता है

   
न्यायाधीश परमात्मा
श्रीभगवानुवाच
32.कालोअस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो
लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।
ऋतेअपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वें,
येअवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः।।
श्री भगवान् ने कहा: मैं लोकों का विनाश करने वाला काल हूं, जो अब बड़ा हो गया हूं और यहां इन लोकों का दमन करने में लगा हुआ हूं। ये परस्पर-विरोधी सेनाओं में पंक्तिबद्ध खडे़ हुए योद्धा तेरे (तेरे कर्म के) बिना भी शेष नहीं रहेंगे।काल विश्व का प्रधान संचालक है। यदि परमात्मा को काल-रूप में सोचा जाए, तो वह निरन्तर सृष्टि कर रहा है और विनाश कर रहा है। काल वह उमड़ता हुआ प्रवाह है, जो अविराम चलता जाता है।परम पुरुष सृजन और विनाश दोनों की जिम्मेदारी अपने सिर लेता है। गीता इस सुपरिचित सिद्धान्त को नहीं मानती कि जो कुछ अच्छा है, वह तो परमात्मा की देन है और जो कुछ बुरा है, वह शैतान की देन है। यह परमात्मा मत्र्य अस्तित्व के लिए उत्तरदायी है, तो वह उस अस्तित्व के अन्तर्गत सब बातों के लिए, जीवन और सृजन के लिए, वेदना और मृत्यु के लिए भी उत्तरदायी है परमात्मा का काल पर नियन्त्रण है, क्यों कि वह काल के बाहर है और यदि हम भी काल के ऊपर उठ सकें, तो हम भी इस पर अधिकार कर सकते हैं। काल के पीछे विद्यमान शक्ति होने के कारण वह हमारी अपेक्षा कहीं अधिक दूर तक देखता है और इस बात को जानता है कि किस प्रकार सब घटनाएं नियन्त्रित हैं और इसलिए अर्जुन को बताता है कि कारण अनेक वर्षों से क्रियाशील हैं और अब वे अपने स्वाभाविक परिणामों की ओर बढ़ रहे हैं। इन परिणामों को इस समय, चाहे हम कुछ भी क्यों न कर लें, घटित होने से रोका नहीं जा सकता। उसके शत्रुओं का विनाश बहुत पहले किये गये कार्यों द्वारा अटल रूप से निश्चित हो चुका है। इस प्रकार का अवैयक्तिक भाग्य होता है, जिसे ईसाई प्रारब्ध (प्राविडेण्स) कहते हैं- एक सामान्य ब्रह्माण्डीय आवश्यकता, ’म्वारा’ (भाग्य)- और जो परमात्मा की प्रकृति (स्वभाव) के एक पक्ष की अभिव्यक्ति है; और इसलिए जिसे परमात्मा के प्रभुतासम्पन्न व्यक्तित्व का, जो अपने अचन्त्यि उद्देश्यों के साधन में लगा रहता है, संकल्प समझा जा सकता है। उसके समक्ष आत्मनिर्धारण के सब दावे अकारथ हैं।
 
33.तस्मात्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व,
जित्वा शत्रुनभुड्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव,
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।
इसलिए तू उठ खड़ा हो और यश प्राप्त कर। अपने शत्रुओं को जीतकर तू इस समृद्धिपूर्ण राज्य का उपभोग कर। वे सब तो पहले ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाची (अर्जुन), तू अब इसका कारण-भर बन जा।भवितव्यता का ईश्वर सब बातों का निश्चय करता है और उन्हें नियत करता है और अर्जुन को तो केवल उसका साधन- उस सर्वशक्तिमान् की अंगुलियों के नीचे रखी हुई बांसुरी- बनना है, जो अपने ही एक उद्देश्य को पूरा कर रहा है और एक महान् विकास करने में लगा है। यदि अर्जुन यह समझता है कि उसे अपने अपूर्ण विवेक के अनुसार कार्य करना है, तो वह अपने-आप को धोखा दे रहा है। कोई भी व्यष्टि आत्मा परमांत्मा के इस विशेषाधिकार में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। शस्त्र उठाने से इनकार करने के कारण अर्जुन धृष्टता का दोषी है। देखिए: 18, 58।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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