भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 180

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अध्याय-8
विश्व के विकास का क्रम अर्जुन प्रश्न करता है

   
24.अग्निज्र्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।
अग्नि, प्रकाश, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण (जिन दोनों सूर्य भूमध्य रेखा से उत्तर की ओर रहता है) के छः महीने- यह वह समय है, जिसमें इस संसार में प्रस्थान करने वाले ब्रह्मज्ञानी ब्रह्म तक पहुंच जाते हैं।

25.धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्माशा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्दमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य नविर्तते।।
धुआं, रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन (जिन दिनों सूर्य भूमध्यरेखा से दक्षिण की ओर रहता है) के छः महीने- यह वह समय है, जिसमें प्रयाण करने वाले योगी चन्द्रमा की ज्योति प्राप्त करके वापस लौट आते हैं। कहा जाता है कि हमारे मृत पूर्वज (पितर) चन्द्रमा के लोक में निवास करते हैं और पृथ्वी पर वापस लौटने का समय होन तक वहीं रहते हैं।

26.शुक्तकृष्णे गती ह्यते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः।।
प्रकाशमय और अन्धकारम, संसार के ये दो मार्ग शाश्वत मार्ग समझे जाते हैं। एक से जाने वाला वापस नहीं लौटता, जब कि दूसरे से जाने वाला वापस लौट आता है।जीवन प्रकाश और अन्धकार के मध्य चल रहा एक संघर्ष है। इनमें से पहला मुक्ति का कारण बनता है और पिछला पुनर्जन्म का। यहां पर लेखक के युगान्त-सम्बन्धी एक विश्वास का उपयोग एक महान् आध्यात्मिक सत्य को प्रकट करने के लिए किया है और वह सत्य यह है कि जो लोग अज्ञान की रात्रि में भटकते रहते हैं, वे पितरों के मार्ग से जाते हैं और वे पुनर्जन्म के वशवर्ती रहते हैं और जो लोग ज्ञान के प्रकाश में रहते हैं और ज्ञान के मार्ग पर चलते रहते हैं, वे पुनर्जन्म के बन्धन से मुक्ति पा लेते हैं।

27.नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।।
हे पार्थ (अर्जुन), जो योगी इन मार्गो को जान लेता है, वह कभी भ्रम में नहीं पड़ता। इसलिए हे अर्जुन, तू सदा योग में जुटा रह। तू चाहे कुछ भी काम क्यों न कर रहा हो, परन्तु नित्यब्रह्म के ध्यान को कभी मत छोड़।

28.वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव,
दानेषु यतपुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा,
योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।
यह सब जान लेने के बाद योगी वेदों के अध्ययन, यज्ञ, तप और दान के पुण्य से प्राप्त होने वाले फलों के परे पहुंच जाता है और आदि तथा परम स्थान को प्राप्त करता है।
वेदों के अध्ययन, यज्ञों तपों और दानों के फलस्वरूप जो स्थितियां प्राप्त होती हैं, वे निम्नतर स्थितियां होती हैं, जिन्हें वह योगी पार कर जाता है, जो उनसे ऊपर उठकर अन्तिम लक्ष्य तक पहुंचता है।
इति ’ ’ ’ अक्षरब्रह्मयोगो नामाष्टमोअध्यायः।
यह है ’अक्षरब्रह्म का योग’ नामक आठवां अध्याय।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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