भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 153

अद्‌भुत भारत की खोज
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अध्याय-6
सच्चा योग संन्यास और कर्म एक हैं

  
4.यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।
सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते।।
जब कोई मनुष्य इन्द्रियों के विषयों में या कर्मों में आसक्त नहीं होता और सारे संकल्पों का त्याग कर देता है, तब कहा जाता है कि उसेन योग को प्राप्त कर लिया है (योगरूढ़)।सर्वसंकल्पसंन्यासी: जिसने सब संकल्पों को त्याग दिया है। हमें अपनी रुचियों और अरुचियों को छोड़ देना होगा, अपने-आप को भुला देना होगा और अपने-आप को त्याग देना होगा। सब संकल्पों के त्याग द्वारा, अहंकार के दमन द्वारा, अपनी इच्छा को पूर्णतया भगवान् के प्रति समर्पित कर देने के द्वारा साधन के मन की दशा ऐसे रूप में विकसित हो जाती है, जो ब्रह्म के तुल्य होती है। कुछ सीमा तक वह उस अविच्छिन्न कालातीत चेतना का अंग बन जाता है, जिसे जानने का वह अभिलाषा होता है।मुक्त आत्मा इच्छा या आसक्ति के बिना, उस अंहकारपूर्ण संकल्प के बिना कार्य करती है, जिससे इच्छाएं उत्पन्न होती हैं। मनु का कथन है कि सब इच्छाएं संकल्प से उत्पन्न होती हैं। [१]महाभारत में कहा गया हैः ’’ओ इच्छाओ, मैं तुम्हारे मूल को जानता हूं। तुम्हारा जन्म संकल्प या विचार से होता है। तुम्हारे जन्म संकल्प या विचार से होता है। मैं तुम्हारे विषय में नहीं सोचूंगा और तुम्हारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।’’ [२]
 
5.उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने-आप को ऊपर उठाए, वह अपने-आप को नीचे न गिराए, क्यों कि आत्मा ही अपनी मित्र है और केवल आत्मा ही अपनी शत्रु है। धम्मपद से तुलना कीजिए: ’’आत्मा आत्मा का स्वामी है।’’[३] ’’आत्मा ही आत्मा का लक्ष्य है।’’[४] भगवान् हमारे अन्दर है। वह हमारे दैनिक जीवन की साधारण व्यष्टिभूत चेतना के नीचे विद्यमान चेतना है, परन्तु वह उसके समान नहीं है। प्रकार की दृष्टि से दोनों परस्पर भिन्न हैं, हालांकि वह व्यक्ति भगवान् को प्राप्त कर सकता है, जो अपने जीवन को बचाने के लिए जीवन को गंवाने तक के लिए तैयार हो। हम अधिकांशतः अपने अन्दर विद्यमान आत्मा से अनजान रहते हैं, क्योंकि हमारा ध्यान उन विषयों की ओर लगा रहता है, जिन्हें हम पसन्द या नापसन्द करते हैं। हमें अपने अन्दर विद्यमान ब्रह्मको अनुभव करने के लिए इन विषयों से दूर हटना होगा। यदि हम अपने साधारण जीवन की निरुद्देश्यता, असंगति और बीभत्सता को अनुभव न करें, तो सच्ची आत्मा हमारे साधारण जीवन की शत्रु बन जाती है। सार्वभौम आत्मा और व्यक्तिक आत्मा एक-दूसरे की प्रतिद्वन्द्वी नहीं हैं। सार्वभौम आत्मा व्यक्तिक आत्मा की मित्र भी बन सकती है और शत्रु भी। यदि हम अपनी क्षूद्र लालसाओं और तृष्णाओं को वश में कर लें, यदि हमारी व्यक्तिक आत्मा अपने-आप को सार्वभौम आत्मा के प्रति समर्पित कर देती है, तो सार्वभौम आत्मा हमारी मार्गदर्शक और गुरु बन जाती है।[५] हममें से हर एक को ऊंचा उठने या नीचा गिरने की स्वतंत्रता है। और हमारा भविष्य हमारे अपने हाथों में है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सकंल्पमूलः कामो वै यज्ञः संकल्पसम्भवः। 2, 3
  2. काम, जानामिते मूलं, संकल्पात्वं हि जायसे। न त्वां संकल्पयिष्यामि तेन मे न भविष्यसि।। - शान्ति पर्व, 77, 25
  3. अत्ता हि अत्तनो नाथो। 160
  4. अत्ता हि अत्तनो गति। 380
  5. बोएहमी का कथन है: ’’सच कहा जाए तो तेरी अपनी इच्छा, श्रवण और दर्शन के अतिरिक्त और कोई वस्तु तुझे उससे दूर नहीं रखती और न तुझे इस अतीन्द्रिय स्थिति तक आने से ही रोकती है। और क्यों कि तू उसके विरुद्ध इतना प्रयत्न करता है, जिससे कि स्वयं तेरा अवतार हुआ है और जिससे तू निकला है, इसीलिए तू स्वयं अपनी इच्छा से अपने-आप को परमात्मा की इच्छा से दूर रखता है और दर्शन को भगवान् के दर्शन से दूर रखता है।’’ सेण्ट जान आफ दि क्रोस कहता है: ’’आत्मा अपनी शक्ति के भरोसे रहकर जितना ही अधिक रिजी गई वस्तुओं की ओर अपनी आदत और रुझान के कारण झुकती चली जाती है, उतनी ही कम इस संयोग की ओर उसकी प्रवृत्ति होती है, क्यों कि वह अपने-प्राण को पूर्णतया परमात्मा के हाथों में नहीं छोड़ देती, जिससे कि वह अधिक विकसित रूप में रूपान्तरित कर सके।’’ जामी ने अपनी पुस्तक ’लवाइड’ में लिखा है: मेरे हृदय को पवित्र बनाओ, में लिखा हैः मेरे भाग्य मं नित्य आंसू और आहें लिख दो। और मुझे मेरे आत्म से दूर अपनी राह पर ले चलो, जिससे अपने आत्म को गंवाकर मैं तुम तक पहुंच सकूं। - हिृनफील्डकृत अंग्रेजी अनुवाद।

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