भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 143

अद्‌भुत भारत की खोज
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अध्याय-5
सच्चा संन्यास (त्याग) सांख्य और योग एक ही लक्ष्य तक पहुंचाते हैं

  
अर्जुन उवाच
1.संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ।।
अर्जुन ने कहा:
हे कृष्ण, तू कर्मां के त्याग की प्रशंसा करता है और फिर निःस्वार्थ कर्म की प्रशंसा करता है। अब मुझे सुनिश्चित रूप से बता कि इन दोनों में से कौन-सा अधिक अच्छा है?शंकराचार्य का कथन है कि यहां पर यह जो प्रश्न उठाया गया है, वह अज्ञानी मनुष्यों के लिए उठाया गया है, क्यों कि जिसने आत्मा को प्राप्त कर लिया है, उसके लिए और कुछ प्राप्तव्य नहीं रहता, क्यों कि वह पहले ही सब-कुछ प्राप्त कर चुका है। 3, 17 में यह कहा गया है कि उसके लिए करने को और कोई कत्र्तव्य शेष नहीं रहता। 3,4 और 4,6 जैसे स्थानों पर कर्म की पद्धति को आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए एक सहायक अंग के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जब कि 6, 3 में यह कहा गया है कि जो मनुष्य सही ज्ञान प्रस्तुत कर चुका है, उसे फिर कर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती। इसके अलावा, 4, 21 में उसके लिए शरीर के निर्वाहमात्र के लिए अपेक्षित कर्म के सिवाय बाकी सब कर्मां का निषेध कर दिया गया है। जिस व्यक्ति को आत्मा की सच्ची प्रकृति का ज्ञान है, उसे 5, 8 में सदा एकाग्रचित्त से इस बात का ध्यान करने के लिए कहा गया है कि वह ’मैं नहीं हूं, जो इस कार्य को कर रहा है। यह तो स्वप्न में भी सोच पाना सम्भव नहीं है कि जिस व्यक्ति को आत्मा का ज्ञान हो गया है, उसे कर्म से कोई वास्ता हो सकता है, जो कर्म सच्चे ज्ञान का इतना विरोधी है और पूर्णतया भ्रान्त ज्ञान पर आधारित है।[१] इस प्रकार शंकराचार्य का कथन है कि अर्जुन का प्रश्न केवल उन लोगों के विषय में है, जिन्हें आत्मा का ज्ञान नहीं हुआ है। अज्ञानियों के लिए संन्यास की अपेक्षा कर्म अधिक अच्छा है।सारी गीता में लेखक का मन्तव्य यह प्रतीत होता है कि जिस कर्म का त्याग किया जाना है, वह केवल स्वार्थपूर्ण कर्म है, जो हमें कर्म की श्रृंखला से बांधता है और सारी गतिविधि त्याग--योग्य नहीं है। यह ठीक है कि हमारा उद्धार केवल कर्मों द्वारा नहीं हो सकता, परन्तु कर्म-उद्धारक ज्ञान के विरोधी नहीं है।
 
श्री भगवानुवाच
2.संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।
श्री भगवान् ने कहा: कर्मां का संन्यास और उनका निःस्वार्थ रूप से करना, दोनों ही आत्मा की मुक्ति की ओर ले जाने वाले हैं। परन्तु इन दोनों में कर्मों को त्याग देने की अपेक्षा कर्मों का निःस्वार्थ रूप से करना अधिक अच्छा है। [२]साख्य- पद्धति में कर्मों के त्याग की आवश्यकता होती है और योग में सही भावना से कर्म करने पर आग्रह किया गया है। मूल में पहुंचकर वे दोनों एक हैं, परन्तु योगमार्ग हमारे सम्मुख अधिक स्वाभाविक रूप में आता है। दोनों मार्ग एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। सांख्य में ज्ञान या अन्तदृष्टि पर जोर दिया गया है; योग में संकल्पात्मक प्रयत्न पर बल दिया गया है। इनमें से पहली पद्धति में हम विजातीय तत्वों को विचार द्वारा दूर हटाकर आत्मा का ज्ञान प्राप्त करते हैं, दूसरी पद्धति में हम उन्हें संकल्प द्वारा दूर हटा देते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आत्मतत्वविदः, सम्यग्दर्शनविरुद्धो मिथ्याज्ञानहेतुकः कर्मयोगः स्वप्नेअपि न संभावयितुं शक्यते।
  2. देखिए 3, 8

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