भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 141

अद्‌भुत भारत की खोज
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अध्याय-4
ज्ञानमार्ग ज्ञानयोग की परम्परा

  
ज्ञान की प्रशंसा
35.यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यामन्यथो मयि।।
जब तू इस ज्ञान को प्राप्त कर लेगा, तब तू फिर कभी इस भ्रान्ति में नहीं पडे़गा; क्यों कि हे पाण्डव (अर्जुन), इस ज्ञान के द्वारा तू निरपवाद रूप से सब सत्ताओंको पहले अपने अन्दर और फिर मेरे अन्दर विद्यमान देखेगा।जब भेद की भावना नष्ट हो जाती है, तब कर्म बन्धनकारी नहीं बनते, क्यों कि अज्ञान बन्धन का मूल है और आत्मा ज्ञान प्राप्त करने के बाद उस अज्ञान से मुक्त हो जाता है।
 
36.अपि चेदासि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ।।
चाहे तू सब पापियों से बढ़कर भी पापी क्यों न हो, फिर भी तू केवल ज्ञान की नीव द्वारा सब पापों के पार पहुंच जाएगा।
 
37.यथैधासि समिद्धोअग्निर्भस्मसात्कुरुतेअर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।
हे अर्जुन, जिस प्रकार जल उठने पर आग अपने ईधनको राख कर देती है, उसी प्रकार ज्ञान की अग्नि भी सब कर्मों को भस्मसात् कर देती है।
 
38.न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति।।
इस पृथ्वी पर ज्ञान के सृदश पवित्र वस्तु और कोई नहीं है। जो व्यक्ति योग द्वारा पूर्णता को प्राप्त हो जाता है, वह समय आने पर स्वयं अपने अन्दर ही अपने इस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है।अन्त में आत्मसंयम से यह ज्ञान मनुष्य के मन में प्रकट हो जाता है। ज्ञान के लिए श्रद्धा आवश्यक है
 
39.श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।
जिस व्यक्ति में श्रद्धा है, जो इस (अर्थात् ज्ञान) को पाने में तत्पर है और जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह ज्ञान को प्राप्त करता है और ज्ञान को प्राप्त करके वह शीघ्र ही सर्वाच्च शान्ति को प्राप्त करता है। श्रद्धा: विश्वास। ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्राद्ध आवश्यक है। श्रद्धा अन्धविश्वास नहीं है। यह आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए महत्वाकांक्षा हैं यह ज्ञान के उस अनुभवगम्य आत्म का प्रतिबिम्ब है, जो हमारे अस्तित्व के गम्भीरतम स्तरों में निवास करता है। यदि श्रद्धा स्थिर हो, तो यह हमें ज्ञान की प्राप्ति तक पहुंचा देती है। ज्ञान परम ज्ञान के रूप में सन्देहों से रहित होता है, जब कि बौद्धिक ज्ञान में, जिसमें हम इन्द्रियों द्वारा प्रदान की गई जानकारी पर और तर्क से निकले निष्कर्षों पर निर्भर रहते हैं, सन्देहों और अविश्वास का स्थान रहता है। ज्ञान इन साधनों द्वारा प्राप्त नहीं होता। हमें उसे आन्तरिक रूप से अपने जीवन में लाना होता है। और बढ़ते हुए उसकी वास्तविकता तक पहुंचना होता है। उस तक पहुंचने का मार्ग श्रद्धा और आत्मसंयम में से होकर है।
परां शान्तिम्: सर्वोच्च शान्ति। नीलकण्ठ का कथन है कि ज बवह कर्म, चालू हो गया था, अपना मार्ग पूरा कर चुकता है, तब वह आनन्द की सर्वाच्च अवस्था में पहुंच जाता है।[१]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विदेहकैवल्यम् ’’’ प्रारब्धकर्मसमाप्तौ सत्याम् ।

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