भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 125

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अध्याय-4
ज्ञानमार्ग ज्ञानयोग की परम्परा

  
3.स एवायं मया तेअद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।
भक्तोअसि में सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।
वही प्राचीन योग मैंने तुझे आज बताया है, क्यों कि तू मेरा भक्त है और सखा है; और यह योग सबसे श्रेष्ठ रहस्य है। योगः पुरातनः प्राचीन योग । गुरु बताता है कि वह किसी नये सिद्धान्त की स्थापना नहीं कर रहा, अपितु केवल एक पुरानी परम्परा की, एक सनातन यथार्थता की पुनस्र्थापना- भर कर रहा है, जो गुरुओं द्वारा शिष्यों को दी जाती रही है। यह उपदेश बहुत पहले विस्मृत हो चुके ज्ञान का पुनर्नवीकरण, पुनरनपुसन्धान, पुनस्र्थापना है। सभी महान् उपदेशकों ने, जैसे गौतम बुद्ध और महावीर, शंकराचार्य और रामानुज ने, यही कहने में सन्तोष अनुभव किया है कि वे पुराने गुरुओं की शिक्षाओं को ही फिर नये सिरे से बता रहे हैं। मिलिन्दपह कहता है कि बुद्ध ने उस प्राचीन मार्ग को ही फिर खोला है, जो बीच में लुप्त हो गया था। [१] जब बुद्ध भिक्षुक के वेश में हाथ में भिक्षा-पात्र लिये भिक्षा मांगता हुआ अपने पिता की राजधानी में वापस लौटता है, तो उसका पिता पूछता है: ’’यह सब क्यों? ’’ और उत्तर मिलता है: ’’पिताजी, यह मेरी जाति की प्रथा है। ’’ राजा आश्चर्य से पूछता है: ’’कौन-सी जाति? और बुद्ध उत्तर देता है:

’’बुद्ध जो हो चुके हैं और जो होगें;
मैं उन्हीं में से हूं और जो उन्होंने किया, वही मैं करता हूं,
और यह जो अब हो रहा है पहले भी हुआ था,
कि इस द्वार पर एक कवचधारी राजा,
अपने पुत्र से मिले; राजकुमार से, जो तपस्वी के वेश में हो। ’’
महान् उपदेशक मौलिकता का दावा नहीं करते, अपितु जोर देकर यह कहते हैं कि वे उसी प्राचीन सत्य का प्रतिपादन कर रहे हैं, जो वह अन्तिम प्रमाप है, जिसके द्वारा सब शिक्षाओं का मूल्य आंका जाता है; जो सब धर्मां और दर्शकों का सनातन स्त्रोत है; जो शाश्वत दर्शन या सनातन धर्म है; जिसे आगस्टाइन इन शब्दों में प्रकट करता है; ’’यह वह ज्ञान है , जो कभी बनाया नहीं गया था; पर जो इस समय उसी रूप में विद्यमान है, जैसा कि वह सदा से विद्यमान रहा है और इसी रूप में वह सदा विद्यमान रहेगा। ’’[२]
भक्तोअसि में सखा चेति: तू मेरा भक्त और मेरा मित्र है। प्रकाशना कभी बन्द नहीं रहती। जब तक मानवीय हृदय में भक्ति और मित्रता के गुण विद्यमान हैं, तब तक परमात्मा अपने रहस्य उसमें प्रकट करता रहेगा। दिव्य आत्मसंचारण उन सब स्थानों पर सम्भव है, जहां भी ईमानदारी और आवश्यकता की अनुभूति हो। धार्मिक प्रकाशना कोई अतीत की घटना नहीं है। यह एक ऐसी वस्तु है, जो इस समय भी जारी है। यह सब प्राणियों के लिए सम्भव है और केवल कुछ थोड़े-से लोगों का ही विशेषाधिकार नहीं है। ईसा ने पाइलेट से कहा थाः ’’ जो भी कोई सच्चा है, वह मेरी आवाज को सुनाता है। ’’


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 217 औार उससे आगे के पृष्ठ।
  2. कन्फ्रैशन्स, 9,10

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