भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 109

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अध्याय-3
कर्मयोग या कार्य की पद्धति फिर काम किया ही किसलिए जाए

  
5.न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैगुणैः ।।
कोई भी व्यक्ति क्षण-भर के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। प्रकृति उत्पन्न गुणों के कारण प्रत्येक व्यक्ति को विवश होकर कर्म करना ही पड़ता है।
जब तक हम शरीर धारण किए हुए जीवन बिताते हैं, तब तक हम कर्म से बच नहीं सकते। कर्म के बिना जीवन टिक ही नहीं सकता।[१] आन्दगिरि ने इस बात को स्पष्ट किया है कि जो व्यक्ति आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह गुणों द्वारा चलायामान नहीं होता; परन्तु जिस व्यक्ति ने अपने शरीर को और इन्द्रियों को वष में नहीं किया है, वह गुणों के कारण कर्म करने के लिए विवश होता है। इसमें यह अर्थ निहित है कि इस दृष्टिकोण को अस्वीकार कर दिया गया है कि मुक्त आत्मा कर्म करना बन्द कर देती है क्यों कि सम्पूर्ण कर्म परमावस्था से गिरना है और अज्ञान की ओर वापस लौटना है। जब तक जीवन है तब तक कर्म से बचा नहीं जा सकता। चिन्तन भी एक कर्म है,जीवन भी एक कर्म है और यह कर्म अनेक फलों का कारण बनते हैं। लालसा से मुक्त हो जाना,निजी स्वार्थ से मुक्त हो जाना ही सच्चा अकर्म है, शारीरिक रूप से गतिविधि का परित्याग अकर्म नहीं है। जब यह कहा जाता है कि जो आदमी मुक्त हो जाता है उसके लिये कर्म समाप्त हो जाता है,तब उसका अर्थ यह होता है कि उसके कर्म करने की निजी रूप से कोई आवश्यकता नहीं रहती। इसका अर्थ नहीं है कि वह कर्म से दूर भागता है और परमानन्दपूर्ण निष्क्रियता में शरण ले लेता है। वह उसी प्रकार कार्य करता है जैसे परमात्मा। उसे बाध्य करने वाली कोई आवश्यकता या विवश करने वाला अज्ञान नहीं होता और कर्म करते हुए भी वह उसमें आसक्त नहीं होता। जब उसका अहंकार दूर हो जाता है तब कर्म उसकी आन्रितक गम्भीरता में से निकलता है और वह कर्म उसके हृदय में गुप्त रूप से स्थित भगवान् द्वारा शासित रहता है। इच्छा और आसक्ति से शून्य होकर सब प्राणियों के साथ एक होकर वह अपने आन्तरिक अस्तित्व की गम्भीरतम गहराइयों से काम करता है और वह अपने अमर, दिव्य सर्वाच्च आत्मा द्वारा शासित रहता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तुलना कीजिए: ’’आंख चाहे या न चाहे उसे देखना ही पड़ता है; हम कानों को स्तब्ध होने के लिए नहीं कह सकते; हमारे शरीर, वे चाहे जहाँ हो, अनुभव करते ही हैं, हमारी इच्छा के प्रतिकूल अथवा हमारी इच्छा के अनुकूल।’’ – वड्र्सवर्थ

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