बर्न हेनरिच विल्हेम वान क्लाइस्ट

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
लेख सूचना
बर्न हेनरिच विल्हेम वान क्लाइस्ट
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 232
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक परमेश्वरीलाल गुप्त

बर्न हेनरिच विल्हेम वान क्लाइस्ट (2777-2822 ई.)। जर्मन कवि, नाटककार एवं उपन्यासलेखक। 28 अक्तूबर 2777 को फ्रैंकफुर्ट-आन-ऑडर में जन्म। नाममात्र शिक्षा प्राप्त कर 2793 में प्रशा की सेना में भर्ती हुआ। 2796 में राइन के अभियान में भाग लिया और 2799 में लेफ्टिनेंट पद से सेवानिवृत हुआ। तदनंतर उसने कानून और दर्शन का अध्ययन किया और 2800 में बर्लिन में अर्थमंत्रालय में नौकरी आरंभ की। अगले वर्ष वह पेरिस आदि नगरों में घूमता फिरा और स्वीजरलैंड में इस आशा से जा बसा कि वहां प्रकृति के शांत वातावरण में वह अपनी मेधा का विकास कर सकेगा। वहां उसकी हेनरिच जाक्के और अगस्त वीलैंड से भेंट हुई और उन्हें उसने अपने प्रथम नाटक ‘द फेमिली श्रोफेंस्टीन’ का प्रारूप सुनाया। उसमें उन्हें उसकी प्रतिभा परिलक्षित हुई और प्रोत्साहन मिला।

2803 ई. में क्लाइस्ट जर्मनी लौटा वेमर में गेटे, शिलर और वीलैंड से मिला। वहाँ रहते हुए उसने अपना नाटक ‘रॉबर्ट ग्विस्कार्ट’ लिखना आरंभ किया किंतु उसे लोगों ने इतना हतोत्साह किया कि उसे अपनी प्रतिभा पर संदेह होने लगा। वह लाइपज़िक, ड्रेस्डेन, पेरिस, घूमता फिरा। पेरिस में वह लगभग पागल सा हो गया और उसी पागलपन में उसने अपने नाटक की पांडुलिपि जला डाली। केवल प्रथम अंक बच पाया। 2804 में जब वह बर्लिन लौटा तब उसकी बदली राजकीय भूमि के प्रशासन विभाग में कोनिंग्सबर्ग कर दी गई। यहाँ रहते उसने ‘दर जरब्रोशेन कुग’ नाटक लिखा जो जर्मन भाषा के सुखांत नाटकों में क्लासिक समझा जाता है। 2807 में जब वह ड्रेसडेन जा रहा था तो फ्रांसीसियों ने उसे जासूस समझकर गिरफ्तार कर लिया और वह छह मास तक वहां बंदी रहा। जेल से मुक्त होने पर वह ड्रेसडेन आया और हेनरिच म्युलर के साथ मिलकर ‘फ्युबस’ नामक पत्रिका प्रकाशित की जिसमें उसकीकविताएँ तथा दुखांत नाटक ‘पेंथेसीलिया छपी’ हैं।

2809 में वह प्राहा (प्राग) गया और फिर बर्लिन आकर बस गया। वहां से ‘बर्लिनर अबेंडब्राल्टर’ नामक पत्र प्रकाशित किया जो हार्डेनबर्ग की नीति का कटु आलोचक था। इसी काल में 2808 में उसने अपना रोमांटिक नाटक ‘दस काथचेन वान हाइल ब्रान’ और कतिप कहानियाँ लिखीं। इनमें ‘माइकल कलहास’ लूथर काल की कथा है और जर्मन कथासाहित्य की युगांतरकारी रचना मानी जानी है। उसकी बर्लिन निवास काल की महत्वपूर्ण रचनाएँ मृत्यु के पश्चात्‌ प्रकाशित हुई। वे ‘दाइ हरमैन श्लाख्त’ (जिसमें नैपोलियन और फ्रांसीसियों को वारुस और रोमनों के छद्म में प्रस्तुत किया गया है) और प्रिंज़ हेनरिच वान हामवुर्ग है।

क्लाइस्ट का जर्मन साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान है। नाट्य साहित्य में चल रही क्लासिकी परंपरा का जिसके पोषक गेटे थे, उसने जमकर विरोध किया। उसका उद्देश्य गेटे को पछाड़कर अपने युग के सर्वोच्च नाटककार की ख्याति प्राप्त करना था। उसने अपने नाटकों ग्रीक नाट्य साहित्य तथा शेक्सपियर के दु:खांत नाटकों के मूल तत्वों सामंजस्यपूर्ण मिश्रण द्वारा एक नई नाट्य शैली को जन्म देने का प्रयास किया।

साहित्यिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति में विफल होने के कारण उसका जीवन दु:खी एवं संघर्षमय रहा। अत: उसके नाटकों में हमें वेदना एवं संघर्ष की झलक मिलती है। उसके नाटकों के पात्र अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उसी दृढ़ता और एकनिष्ठ भाव का परिचय देते हैं जिसका समावेश उसके अपने व्यक्तित्व में था। उनमें जो भी विशेषता देखने को मिलती है, वह अपने चरम रूप में। जहाँ एक ओर ‘पैंथेसीलिया’ की नायिका, अमेज्स़ां की रानी शासन की मनोवृति का अत्यधिक उग्र रूप प्रदर्शित करती है वहाँ ‘काशेन फ़ॅन हीलब्रॅान’ की नायिका में हम अत्य धिढंग की दासता पाते हैं। इन नाटकों में मानसिक भावनाओं की तीव्रअभिव्यक्ति है।

क्लाइस्ट का नाटक ‘द प्रिंस ऑव हांबुर्ग’ राष्ट्र के प्रति जर्मन जाति की कर्तव्यनिष्ठा एवं अनुशानप्रियता का उदाहरण प्रस्तुत करता है। हांंबुर्ग का राजकुमार, जिसने अपने देश के लिये युद्ध में विजय प्राप्त की, इसलिये मृत्युदंड पाता है कि उसने अपने से ऊँचे सैनिक अफसरों की आज्ञा की अवहेलना की। पहले तो वह घबड़ाता है, लेकिन यह सोचकर कि राष्ट्र का अस्तित्व इसके नागरिकों की अनुशासन भावना पर निर्भर करता है, वह साहस के साथ मृत्युदंड स्वीकार करता है। अंत में अनुशासनप्रियता का परिचय देने पर उसे क्षमा मिल जाती है।

क्लाइस्ट के दु:खद अंत का पूर्ण वृतांत अज्ञात है। अपनी कतिपय रचनाओं की उपेक्षा से वह कुछ कटु हो गया था और पत्रिका के बंद हो जाने के कारण अर्थाभाव में था। उसने 32 नवंबर, 2822 को पाट्सडैम के निकट वांसी के समुद्र तट पर आत्महत्या कर ली।[१]




टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तुलसी नारायण सिंह