जैन दर्शनः प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा बन सकती है

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आपको नया पन्ना बनाने के लिए यह आधार दिया गया है जैन दर्शन भी ईश्वर की कर्तृत्वशक्ति में विश्वास नहीं करता। प्रत्येक जीवात्मा में परमात्मा बनने की शक्ति का उद्घोष करता है। द्रव्य की दृष्टि से आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है। दोनों का अन्तर अवस्थागत अर्थात् पर्यायगत है। जीवात्मा शरीर एवं कर्मों की उपाधि से युक्त हो कर ‘संसारी’ हो जाता है। ‘मुक्त’ जीव त्रिकाल शुद्ध नित्य निरंजन ‘परमात्मा’ है। ‘जिस प्रकार यह आत्मा राग द्वेष द्वारा कर्मों का उपार्जन करती है और समय पर उन कर्मों का विपाक फल भोगती है, उसी प्रकार यह आत्मा सर्वकर्मों का नाश कर सिद्ध पद को प्राप्त करती है। (जह य परिहीणकम्मा, सिद्धा सिद्धालयमुवेंति)। ‘आत्मा देव देवालय में नहीं है, पाषाण की प्रतिभा में भी नहीं है, लेप तथा मूर्ति में भ्ीा नहीं है। वह देव अक्षय अविनाशी है, कर्म फल से रहित है, ज्ञान से पूर्ण है, समभाव में स्थित है।’’ (अखउ णिरंजणु णाणमय सिउ संहितय समचित्ति)। ‘जैसा कर्मरहित, केवल ज्ञानादि से युक्त प्रकट कार्य समयसार सिद्ध परमात्मा परम आराध्य देव मुक्ति में रहता है वैसा ही सब लक्षणों से युक्त शक्ति रूप कारण परमात्मा इस देह में रहता है......... तू सिद्ध भगवान और अपने में भेद मत कर। नेहउ णिम्मुल णाणमउ सिद्धिहि णिवसइ देउ। तेहउ णिवसइ वंभु परु देह हं मं करि पेउ ।। ‘हे पुरुष ! तू अपने आप का निग्रह कर, स्वयं के निग्रह से ही तू समस्त दुखों से मुक्त हो जायेगा।’’ (पुरिसा ! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमतुच्चसि)। ‘हे जीव ! देह का जरा-मरण देखकर भय मत कर। जो अजर, अमर परम ब्रह्म है उसे ही अपना मान। (देहहो पिक्खिवि जरमरणु मा भउ जीव करेहि। जो अजरामरु बंभु परु सो अप्पाणं मुणेहि)।। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक जीव का लक्ष्य शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त करना है। जो परमात्मा है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वही परमात्मा है। इस प्रकार मैं ही स्वयं अपना उपास्य हूँ। अन्य कोई मेरा उपास्य नहीं है।: (यः परमात्मा स एवाऽहं, योऽहं स परमस्ततः। अहमेव मयोपास्यो, नान्यः कश्चिदिति स्थितिः)। ‘जो व्यवहार दृष्टि से देह रूपी देवालय में निवास करता है और परमार्थतः देह से भिन्न है वह मेरा उपास्यदेव अनादि अनन्त है। वह केवल ज्ञान स्वभावी है। निःसंदेह वही अचलित स्वरूप कारण परमात्मा है।: (देहदेवलि जो वसइ, देउ अणाइ अणंतु। केवलणाणफुरंततणु, सो परमम्पु णिभंतु)।। ‘कारण परमात्मा स्वरूप इस परम तत्व की उपासना करने से यह कर्मोपाधि युक्त जीवात्मा ही परमात्मा हो जाता है। जिस प्रकार बांस का वृक्ष अपने को अपने से रगड़कर स्वयं अग्नि रूप हो जाता है।: (उपास्यात्मानमेवात्मा, जायते परमोऽथवा। मथित्वाऽऽत्मानमात्मैव, जायतेऽग्निर्यथा तरूः)।। उस परमात्मा को जब केवल ज्ञान उत्पन्न होता है, योग निरोध के द्वारा समस्त कर्म नष्ट हो जाते है, जब वह लोक शिखर पर सिद्धालय में जा बसता है तब उसमें ही वह कारण परमात्मा व्यक्त हो जाता है।: (ज्ञानं केवलसंज्ञं, योगनिरोधः समग्रकम्र्महतिः। सिद्धिनिवासश्च यदा, परमात्मा स्यात्तदा व्यक्तः)।। जैन दर्शन सृष्टि व्यवस्था के सम्बन्ध में ईश्वर की कर्तृत्व शक्ति का निषेध करता है। जैन दर्शन में प्रत्येक मुक्त आत्मा ही परमात्मा है। जल की बूँद तत्व है। तत्व है, इस कारण उसकी सत्ता है। सत्ता है इस कारण उसका विनाश अथवा पर में विलीन हो जाना सम्भव नहीं है। सभी मुक्त आत्माएँ स्वरूपतः तो समान है; सभी परमात्म स्वरूप हैं मगर सभी की पृथक सत्ता है। सभी आत्माएँ अनादि निधन हैं। सभी आत्माएँ अविनाशी हैं। मुक्त दशा में आत्मा सिद्ध हो जाती है, परमात्म-स्वरूप हो जाती है।


शीर्षक उदाहरण 1

शीर्षक उदाहरण 2

शीर्षक उदाहरण 3

शीर्षक उदाहरण 4

टीका टिप्पणी और संदर्भ