जार्ज विलियम फ्रेडरिक क्लेयरेंडन

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
लेख सूचना
जार्ज विलियम फ्रेडरिक क्लेयरेंडन
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 242
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक पद्मा उपाध्याय

जार्ज़ विलियम फ्रेडरिक विलियर्स क्लेयरेंडन (1800-1870 ई.) अंग्रेज कूटनीतिज्ञ। लंदन में 12 जनवरी, 1800 को जन्म। सेंट जॉन कॉलेज, कैंब्रिज में शिक्षा। 1820 में केवल 20 वर्ष की आयु में सेंट पीटर्सबर्ग स्थित ब्रिटिश दूतावास में एक ऊँचे पद पर नियुक्त हुआ। 1823 में वह आयात कर का उच्च पदाधिकारी बना। 1833 में माद्रिद में ब्रिटिश मंत्री बनाए गए। माद्रिद में स्पेनी उत्तराधिकार के संबंध में इज़ाबेला द्वितीय के उदार शासन का पक्ष लेकर ख्याति अर्जित की। 1838 में उन्हें अर्ल की उपाधि से विभूषित किया गया तथा 1839 में वेरुलम के प्रथम अर्ल की पुत्री कैथरीन से इनका विवाह हुआ। लार्ड मेलबोर्न के शासनकाल में उन्हें ऊँचे पद मिलते रहे परंतु पामस्टर्न की मिस्र एवं फ्रांस संबंधी नीति का उन्होंने जमकर विरोध किया। 1846 में जॉन रसेल के मंत्रिमंडल में व्यापारमंडल के अध्यक्ष की हैसियत से आए। दो बार उन्हें भारत का एक बार कनाडा का वायसराय बनने के लिये निमंत्रण मिला परंतु उन्होंने अस्वीकार किया। 1847 में वह आयरलैंड के लार्ड लेफ्टिनेंट बनाए गए। 1852 तक वह उस पद पर रहे। 1853 में वे अंतरराष्ट्रीय विभाग के राजकीय सचिव बने। यह उनकी आकांक्षा की पूर्ति थी, जीवन का वरदान था। इस पद को सँभालते ही उन्हें रूसी तुर्की राजनीतिक कुहरे का सामना करना पड़ा जिसका अंतिम परिणाम क्रामिया का युद्ध था। परिणामस्वरूप पेरिस में राष्ट्रों का जो सम्मेलन हुआ उसमें क्लेयरेंडन की कूटनीति द्वारा समता के स्तर पर शांतिपूर्ण संधि संभाव हुई। उन्होंने आस्ट्रिया को तटस्थ रहने या मित्रराष्ट्रों को सहयोग देने को विवश किया। सम्राट् नेपोलियन पर भी क्लेयरेंडन का प्रभाव असीम था, और इसी प्रभाव के कारण नेपोलियन संधि के प्रति निष्ठावान्‌ बना रहा। संमेलन की सफलता का श्रेय भी अधिकांशत: क्लेयरेंडन को हैं। उन्ही की सहायता से काबूर इटली की समस्या को यूरोप के सम्मुख रख सका। सम्मेलन की महान्‌ सफलताओं, जैसे जलयुद्ध के नियमों की घोषणा आदि, का श्रेय भी उन्हें ही हैं। 1853 में जॉन रसेल के व्यक्तिगत विरोध के कारण वे मंत्रिमंडल से अलग हो गए। 1864 में लंकास्टर की डची के चांसलर बनाए गए और पामर्स्टन की मृत्यु के पश्चात्‌ 1865 में वह पुन: विदेश विभाग के मंत्री हुए। इस पद पर वे मृत्युपर्यंत, 1870 के जून तक, रहे।

क्लेयरेंडन का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। भव्य रूप, सुंदर आचरण, प्रखर बुद्धि, सरल व्यवहार तथा मनोहारी नम्रता, ये सब उनके आकर्षक व्यक्तित्व के अंग थे। उनके जीवन की तीन महान्‌ राजनीतिक सफलताएँ चिरस्मरणीय रहेंगी। प्रथम स्पेनी उत्तराधिकार के झगड़े का निपटारा, द्वितीय क्रीमिया युद्ध संबंधी घोषणा की स्वीकृति। आस्ट्रिया-प्रशा-युद्ध संबंधी कठिनाइयाँ तथा श्लेस्विग-होलस्टीन प्रश्न को सुलझाने में भी उन्होंने कम ख्याति नही पाई। बिस्मार्क की एक ही युक्ति क्लेयरेंडन की योग्यता को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त है : ‘यदि क्लेयरेंडन जीवित होता तो फ्रांस और प्रशा के मध्य युद्ध संभव न हुआ होता’। नि:संदेह यदि यह युद्ध न हुआ होता तो बिस्मार्क जैसे कूटनीतिज्ञ की समस्त योजनाओं पर पानी भी फिर गया होता।


टीका टिप्पणी और संदर्भ