ग्राम्य गृहयोजना

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लेख सूचना
ग्राम्य गृहयोजना
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 66
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक श्री कृष्ण

ग्राम्य गृहयोजना सन्‌ १९६१ की जनगणना के अनुसार भारत में ग्रामीण जनसंख्या ३५,९७,७२,१६५ अर्थात्‌ कुल देश की जनसंख्या का ८१% प्रतिशत है। गाँवों की संख्या लगभग ५,५८,०८९ और घरों की लगभग ५.४ करोड़ है। इन घरों की दशा अत्यंत अंसतोषजनक है। अनुमान लगाया गया है कि इनमें से लगभग ५ करोड़ घरों के जीर्णोद्धार अथवा पुनर्निर्माण की आवश्यकता है। इस प्रकार देश की विशालता तथा स्थानीय परिस्थितियों की विविधता के कारण भारत में देहात की आवाससमस्या न केवल आकार में बड़ी है, वरन्‌ प्रकार में भी स्थान स्थान पर भिन्न भिन्न है।

देहात में ३४ प्रतिशत परिवार एक कमरे में, ३२ प्रतिशत दा कमरों में और १५ प्रतिशत तीन कमरों में निर्वाह करते हैं, अर्थात्‌ ८१ प्रतिशत परिवार तीन या तीन से कम कमरोंवाले मकानों में रहते हैं।

देहाती मकानों में ८५ प्रतिशत की कुर्सी कच्ची मिट्टी की, ८३ प्रतिशत की दीवारें मिट्टी, बाँस या सरपत की, तथा ७० प्रतिशत छतें कास, घास, फूस, सरपत या मिट्टी की होती हैं। केवल ६ प्रतिशत घरों की कुर्सी और दीवारें पक्की ईटं, सीमेंट, या पत्थर की, तथा छतें पनालीदार जस्ती चादर, ऐस्बेस्टस सीमेंट, खपड़ों, सीमेंट कंक्रीट, या ईटं की होती हैं।

जलवायु तथा उपलब्ध निर्माणसामग्री की दृष्टि से भारत के तीन मुख्य भाग स्पष्ट हैं : (१) उत्तर का मैदानी प्रदेश, (२) समुद्रतटीय प्रदेश जैसे बंबई, कलकत्ता तथा मद्रास और (३) पहाड़ी प्रदेश।

उत्तरी भारत के अधिकांश भागों में गरमी की ऋतु में अत्यंत गरम और जाड़े की अत्यंत ठंड़ी होती है, तथा वर्षा कम होती है। ताप में आत्यंतिक अंतराल होने के कारण इमारतें अनिवार्यत: भारी भरकम बनानी पड़ती हैं, जिससे वे उष्मा और शीत से रक्षा प्रदान कर सकें। अच्छी मिट्टी मिलने से यहाँ पक्की ईटों की या स्थिरीकृत मिट्टी की दीवारें उठाई जा सकती हैं।

समुद्रतटीय प्रदेशों में जलवायु गर्म और नम होती है तथा वर्षा अपेक्षाकृत अधिक होती है। ऐसे अधिकांश स्थानों में और दक्षिण में बाँस, बल्ली, पनईताड़ (Palmyra) और स्थानीय लकड़ी काफी सस्ती होती है, अत: ऐसी सामग्री का उपयोग करते हुए ढालदार छतवाली हलकी इमारतें अधिक उपयुक्त होती हैं।

पहाड़ी स्थानों में जहाँ जलवायु समशीतोष्ण और वर्षा अधिक होती है, यह आवश्यक है कि छतें जलसह्य हों और कुर्सी काफी ऊँची हो, जिससे नमी से बचाव हो सके। मकान या तो लकड़ी के खंभों के ऊपर बनाए जा सकते हैं, जैसे असम में प्राय: बनते हैं, या पक्की चिनाई की काफी ऊँची कुर्सी रखी जा सकती है, जिससे सील न चढ़े। छतें अनिवार्यत: ढालदार रखनी होती हैं, चाहे वे स्थानीय खपड़ों की हों या ऐस्बेस्टस सीमेंट अथवा जस्ती लोहे की चादरों की, जो भी बनवानेवाले को सुलभ हो।

ग्रामीण आवास समस्या नगरों की आवास समस्य से अधिक जटिल है और इसका सामना नितांत भिन्न आधार पर करना चाहिए। ग्रामीण वासव्यवस्था का कोई भी कार्यक्रम तब तक अभिलषित फलदायी नहीं हो सकता जब तक वह गाँवों के सर्वांगीण विकास कार्यक्रम से संबंधित न हो। आजकल भारत में विकास कार्यक्रम का आधार कृषि की उपज बढ़ाना और स्थानीय व्यवसाय की सुविधाएँ खोजना है। कार्यक्रम बनाने में यह ध्यान रखा जाता है कि वह शनै: शनै: ऐसे क्रमिक विकास के प्रयास में परिणत हो जाय जिसमें स्थानीय सामग्री और सूझ बूझ का अधिकाधिक उपयोग हो सके। यह दृष्टिकोण आवश्यक समझा जाता है, क्योंकि ८० प्रतिशत ग्रामीण परिवारों की मासिक आय १५० रु. से कम है, २८ प्रतिशत की तो ५० रु. तक ही है, ३४ प्रतिशत की ५१ रु. से १०० रु. तक और केवल १८ प्रतिशत की मासिक आय १०१ रु. से १५० रु. के बीच पड़ती है। स्पष्ट है कि ग्रामीण इतनी कम आय में से कुछ भी धन अपने घर के सुधार या जीर्णोद्धार के निमित्त नहीं बचा सकता। इसी कारण प्रथम पंचवर्षीय योजना में ग्रामीण वास-व्यवस्था को स्थान नहीं मिला था। हाँ, सामुदायिक विकास तथा राष्ट्रीय प्रसार कार्यक्रम स्वीकृत करके इसकी आधारशिला रख दी गई थी। ग्रामीणों में अच्छी विधियों का ज्ञान फैलाना, उनकी आर्थिक दशा सुधारना और उनमें उच्च जीवनस्तर की प्रेरणा एवं स्वावलंबन तथा सहकारिता की भावना जागृत करना ही इस कार्यक्रम का मौलिक उद्देश्य था। प्रथम पंचवर्षीय योजनाकाल में देश का लगभग एक चौथाई भाग इस कार्यक्रम के अंतर्गत आ चुका था और द्वितीय योजनाकाल में संभवत: समस्त देश इसके अंतर्गत आ जायगा। अभी तक जितनी भी प्रसार सेवाएँ और सहकारिता संस्थाएँ स्थापित हुई हैं, वे सब ग्रामीणों में उत्तम जीवनयापन की उत्कट भावना उत्पन्न करने के लिये प्रयत्नशील हैं। यह कार्य केवल वैज्ञानिक और प्राविधिक ज्ञान के पूर्ण उपयोग द्वारा उनकी कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा, उद्योग और सहकारिता की उन्नति करके ही नहीं अपितु उनके वर्तमान आवासों का जीर्णोद्वार, या पुनर्निर्माण, करके एवं उन्हें शुद्ध पेयजल-संभरण-संयंत्र, संतोषप्रद नाली और सफाई व्यवस्था, अच्छी पाठशालाओं, मनोरंजन केंद्रों और सार्वजनिक भवनों सरीखी आवश्यक सुविधाओं से संपन्न करके संपादित किया जा रहा है।

ग्रामीण वासव्यवस्था का कार्यक्रम 'सहायताप्राप्त स्वावलंबन' के सिद्धांत पर आधारित है। प्रत्येक परिवार को लागत का कम से कम ५० प्रतिशत स्वयं लगाना पड़ता है, चाहे वह निर्माण सामग्री के रूप में हो अथवा परिवार के सदस्यों के शारीरिक श्रम के। 'सहायताप्राप्त स्वावलंबन' के सिद्धांत को व्यवहार में लाकर निर्माण की लागत भी घटाई जा सकती है। ग्रामीणवास का स्तर उठाने के प्रयास में समस्त स्थानीय सामग्री एवं चातुर्य, जो हमारे गाँवों में उपलब्ध हैं, जुटा देने होंगे। आर्थिक सहायता के इच्छुक प्रत्येक परिवार को उचित ब्याज पर, लंबी अवधि के ऋणों के रूप में, सरकारी सहायता देनी होगी। ये ऋण निर्माण की लागत के ५० प्रतिशत तक, १,५०० रु. की अधिकतम सीमा के अंतर्गत, हो सकते हैं।



टीका टिप्पणी और संदर्भ