गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 314

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
6.कर्म , भक्ति और ज्ञान

जो कुछ भी संसार में उत्पन्न होता और नष्ट होता दीखता है उसका अविनश्वर बीज और मूल वही है और वही उस सबके अव्यक्त भाव का चिरंतन विश्रांति - स्थान है। वही है जो सूर्य और अग्नि की उष्णता में दाहकर सत्ता है ; वही है अत्यधिक वर्षा और वर्षा का अभाव भी , वही यह सारी भौतिक प्रकृति और उसका समस्त व्यापार है। मृत्यु उसका मुखौटा (नकाब) है और अमरत्व उसका आत्मप्रकाश । वह सब जिसे हम लोग " है " कहते हैं , वही है और वह सब जिसे अभी लोग ' नहीं है " कहते हैं , वह भी अनंत के अंदर छिपा हुआ है ओर उस अकथ की रहस्यमयी सत्ता का एक भाग है ।[१]एकमात्र परम ज्ञान और भक्ति के कोई भी चीज , बिना समग्र आत्म - निवेदन और समर्पण के कोई भी मार्ग हमें उन परम तक नहीं ले जायेगा , जो कि सब कुछ हैं। अन्य धर्म, अन्य भजन - पूजन , अन्य ज्ञान , और साधन भी अवश्य ही अपने - अपने फल देने वाले हैं , पर वे फल अल्पकालीन होते हैं और केवल दैवी संकेतों और रूपों के भोग देकर ही समाप्त हो जाते हैं। हमरे लिये , हमारी मनोभूमि की समतोल के अनुसार , ब्राह्म और आंतर ज्ञान और साधन खुले रहते हैं। ब्राह्म धर्म बाह्म देवता का पूजन है और बाह्म सुख का साधन हैः इसके साधक अने पाप धोकर शुद्ध होते और शस्त्रों के बाह्म विधान का पूर्ण पालन करने के लिये प्रवृत्ति - प्रधान नैतिक सदाचारिता को प्राप्त होते हैं ; वे बाह्य योग के विधिबद्ध प्रयोग करते हैं।
परंतु उनका लक्ष्य इस पार्थिव जीवन के नश्वर सुख - दुःख के पश्चात स्वर्ग के भोग प्राप्त करना होता है , वे वह महान् सुख चाहते हैं जो इहलोक में नहीं मिलते , पर वह सुख इस संकुुचित और दुःख - प्रधान जगत से विशालतर लोक का सुख होत हुए भ्ज्ञी है वैयक्तिक और लौकिक ही। और , जो कुछ वे प्राप्त करना चाहते हैं , उसे श्रद्धा और विधिपूर्वक प्रयत्न से प्राप्त करते हैं जड़ जीवन और पार्थिव कर्म ही हमारे वैयक्तिक जीवन का सारा क्षेत्र नहीं है , न ही यह ब्रह्मांड का एकमात्र जीवन - प्रकार है। अन्य लोक भी हें , और उनमें यहां की अपेक्षा अधिक आनंद है। इसलिये प्राचीन समय के श्रोती वेदत्रयी का बाह्यार्थ सीखते , पापों को धोकर पवित्र होते , देवताओं के दर्शन -स्पर्शन की सुधा का पान करते और यज्ञ - यागादि तथा पुण्य कर्मो द्वारा स्वर्ग के भोग पाने का प्रयत्न थे। जगत् के परे कोई परम वस्तु है इसमें यह जो दृढ़ विश्वास है और , इससे भी अधिक , दिव्य लोक को प्राप्त होने का यह जो प्रयास है इससे जीव को अपने मार्गक्रमण में वह बल प्राप्त होता है जिससे स्वर्ग के उन सुखों को वह प्राप्त कर ले जिनपर उसकी श्रद्धा और प्रयास केन्द्रीभूत हुए हों। परंतु वहां से जीव को फिर मत्र्यलोक में आना पड़ता है , क्योंकि उस लोक के जीवन के वास्तविक उद्देश्य का उसे कोई पता नहीं चला , उसकी अपलब्धि नहीं हुई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 9.17. 19

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