गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 270

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
2.भक्ति -ज्ञान -समन्वय

तथापि उन भक्तों की दृष्टि अपूर्ण होने के कारण भगवान् उनका कभी परित्याग नहीं करते । क्योंकि भगवान् अपने परात्पर परम स्वरूप में अज, अव्यय और इन सब अंशभूत रूपों से श्रेष्ठ होने के कारण अनायास किसी प्राणी की समझ में नहीं आ सकते। वे माया के इस घने पटल से, अपनी उस योगमाया से अपने - आपको ढंके हुए हैं जिसके द्वारा वे जगत् के साथ एक, और फिर भी उसके परे हैं, अंतर्यामी हैं, पर छिपे हुए , सबके हृदयों में अवस्थित हैं, पर हर किसी पर प्रकट नहीं। प्रकृति में स्थित मनुष्य समझता है कि प्रकृति में दृश्यमान ये सब पदार्थ भगवान् ही हैं जब कि यथार्थ में ये सब केवल उनके कार्य , शक्तियां और आवरण मात्र हैं। भगवान् भूत, वर्तमान और भविष्य की सभी वस्तुओं को जानते हैं पर उन्हें कोई नहीं जानता। इस कारण यदि प्रकृति में अपनी क्रिया के द्वारा सब प्राणियों को इस प्रकार भरमाकर वे इन सब पदार्थो के अंदर उन्हें दर्शन न दें तो माया में बद्ध किसी मुनष्य या जीव के लिये कोई दिव्य आशा न रह जायेगी। इसीलिये इन भक्तों की प्रकृति के अनुसार , जैसे भी ये भगवान् की ओर चलते हैं वैसे ही , भगवान् इनकी भक्ति को ग्रहण करते हैं और भागवत प्रेम और करूणा बरसाकर उनकी पुकार का उत्तर देते हैं।
ये रूप हैं भी तो आखिर उन्हींका एक ऐसा आविर्भाव जिसमें से होकर अपूर्ण मानवी बुद्धि उनका स्पर्श पा सकती है, ये कामनाएं ही वह प्रथम साधन बन जाती हैं जिससे हमारे हृदय उनकी ओर फिरते हैं। और, फिर किसी प्रकार की भक्ति, चाहे वह कितनी ही संकुचित और मर्यादित क्यों न हो, बेकार नहीं होती। इसकी एकमात्र महत्ती आवश्यकता है श्रद्धा- विश्वास। भगवान् कहते हैं, ‘‘ श्रद्धा के साथ जो कोई भक्त मेरे जिस किसी रूप को पूजना चाहता है मैं उसकी वह श्रद्धा उसी में अचल बना देता हूं”[१] वह अपने मतवाद और उपासना की उस श्रद्धा के बल पर अपनी इच्छा पूर्ण करा लेता और उस आध्यात्मिक अनुभूति को लाभ करता है जिसका वह उस समय अधिकरी होता है । भगवान् से अपना सर्वविध कल्याण मांगते – मांगते वह अंत में भगवान् को ही अपना सर्वविध कल्याण जानने लगता है। अपने सब सुखों के लिये भगवान् पर निर्भर होकर वह अपने सब सुखों को भगवान् पर ही केन्द्रीभूत करना सीख लेता है। भगवान् को उनके रूपों और गुणों से जानकर वह उन्हें समग्र और परम रूप में जानने लगता है जो सबका मूल है।[२]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 7.21
  2. परम प्राप्ति के पश्चात भी आत्त् आदि त्रिविध कनिष्ठ भक्तिभावों के लिये अवकाश रहता है, अवश्य ही तब ये भाव संकीर्ण और वैयक्तिक नहीं होते , बल्कि दिव्यता में परिणत हो जाते हैं; क्योंकि परम की प्राप्ति के बाद भी यह प्रबल इच्छा बनी रह सकती है कि इस प्राकृत जगत् से दुःख , दुष्कर्म और अज्ञान दूर हों और परम कल्याण, शक्ति , आनंद और ज्ञान का इसमें उत्तरोत्तर अधिकाधिक विकास और पूर्ण प्राकट्य हो।

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