गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 253

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गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
1.दो प्रकृतियां

हमारी दृष्टि इस तरह समग्र न होने के कारण, तथा विभाजक मन - बुद्धि और अहंकारगत पृथक - भाव के आधर - रूप होने के कारण, हमारी बुद्धि में जगत् के विषयों की जो प्रतीति होती है वह अज्ञान है। हमें इस मन - बुद्धि अहंभववाली दृष्टि से निकलकर वास्तविक एकत्व - साधक ज्ञान में प्रवेश करना होगा। उस ज्ञान के दो पहलू हैं, एक स्वरूप - ज्ञान जिसे केवल ज्ञान कहते हैं, और दूसरा सर्वग्राही ज्ञान जिसे विज्ञान कहते हैं। एक परमात्म - स्वरूप का अपरोक्ष अनुभव है और दूसरा उसकी सत्ता के विभिन्न तत्वों, अर्थात् प्रकृति, पुरूष तथा अन्य सब तत्वों का यथावत् स्वानुभूत ज्ञान है जिसके द्वारा भूतमात्र अपने मूल भागवत स्वरूप में तथा अपनी प्रकृति के परम सत्य में जाने जा सकते हैं। यह समग्र ज्ञान, गीता कहती है कि , बड़ी दुर्लभ और कठिन वस्तु है, “सहस्त्रों मनुष्यों में कोई एकाध ही सिद्धि पाने का प्रयत्न करता है और ऐसा प्रयत्न करके सिद्धि पाने वालों में विरला ही कोई मुझे मेरे स्वरूप के सब तत्वों के साथ जानता है।अब उपक्रम के तौर पर तथा इन समग्र ज्ञान को सुप्रतिष्ठित करने योग्य मनोभूमि का निर्माण करने के लिये भगवान् वह गंभीर और महत् भेद करते हैं जो गीता के संपूर्ण योग का व्यावहारिक आधार है, यह भेद है दो प्रकृतियों का, एक प्रकृति है प्राकृत और दूसरी आध्यात्मिक।
‘‘ भौतिक सृष्टि के मूलभूत पंचातत्व और मन, बुद्धि , अहंकर - यह मेरी अष्टधा विभक्त प्रकृति है। पर इससे भिन्न मेरी जो दूसरी , परा प्रकृति है उसे जान लो जो जीव बना करती है और जो इस जगत् को धरण करती हैअ‍।”[१] यहां गीता का वह प्रथम नवीन दार्शनिक सिद्धांत आया जिससे सांख्य - शास्त्र के मंतव्यों से आंरम्भ करके , वह उनके आगे बढ़ती है और सांख्यों के शब्दों को रखती हुई और उन्हें विस्तृत करती हुई उनमें वेदांत का अर्थ भर देती है। प्रकृति को अष्टधा कहा गया है जिसमें पांच महाभूत - भौतिक सृष्टि के मूलभूत पंचतत्व जिनके स्थूल नाम पृथ्वी , अप, तेज, वायु और आकाश हैं, - अपनी पंच ज्ञानन्द्रियों और पंच कमेंन्द्रियों सहित मन - बुद्धि और अहंकार , ये आठ अंग हैं, यही सांख्यों का प्रकृति वर्णन है। सांख्य - शास्त्र यहीं रूक जाता है और इसी रूकाव के कारण उसे प्रति और पुरूष के बीच एक ऐसा भेद करना पड़ता है जो दोनों को मिलने नहीं देता और इस कारण दोनों को एक - दूसरे से सर्वथा भिन्न दो मूल सत्ताएं ही मान लेना पड़ता है। गीता को भी, यदि वह यहीं रूक जाती है तो, पुरूष और विश्व - प्रकृति के बीच यही अपरिहार्य विच्छेद स्थापित करना पड़ता और तब यह विश्व - प्रकृति त्रिगुणात्मिका माया मात्र और यह सारा विश्व - प्रंपच उस माया का ही परिणाम - सा रह जाता ; इसके सिवाय प्रकृति और उसके इस विश्व - प्रंपच का और कुछ भी अर्थ न होता । पर बात इतनी ही नहीं है, और कुछ है, एक पराप्रकृति भी है, एक आत्मा की प्रकृति भी है।[२]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 7.4 -5
  2. 7.3

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