गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 245

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गीता-प्रबंध
24.कर्मयोग का सारतत्व

जिस जीवन में आंतर सत्ता वस्तुओं के बाह्म रूपों मे ही फंसी रहती है और एक क्षण के लिये भी उनसे ऊपर नहीं उठ सकती , वह हमारे ऊपर होने वाले प्रकृति के संपूर्ण कार्य को अन्यान्य मनों , इच्छाओं और शरीरों पर होने वाले कार्यो से पृथक् बोध करती है; और हमारे लिये हमारा जीवन उतना - सा ही रह जाता है जितना हमारे अहंकार पर प्रकृति का असर पड़ता और हमारा अहंकार उसके स्पर्शो का प्रत्युत्तर देता है, इसके सिवाय हम और कुछ नहीं जानते , हमें लगता है कि हम और कुछ हैं ही नहीं। और ऐसा लगता है मानों आत्मा भी मन , इच्छा , भवावेगमय और स्नायवीय प्रतिग्रह और प्रतिक्रिया का ही कोई पृथक् स्तूप है। हम अपने अहंकार को विशाल बना सकते हैं, अपने - आपको कुल, जाति , वर्ग देश, राष्ट, मनुष्यजाति तक के साथ एक कर सकते है; परंतु फिर भी इन सब छभ्दारूपों में अहंकार ही हमारे सब कार्मो की जड़ बना रहता है , केवल बाह्म पदार्थो के साथ अपने इन उदार व्यवहारों से उसे अपनी पृथक् सत्ता का एक विशेष संतोष प्राप्त होता है।इस अवस्था में भी हमरे अंदर प्राकृत सत्ता की इच्छा ही काम करती है जो अपने व्यक्तित्व के विभिन्न रूपों को तृप्त करने के लिये ही बाह्म जगत् के स्पर्शो को ग्रहण करती है, और इस प्रकार विषयों को ग्रहण करने वाला संकल्प सदा ही कर्म और कर्मफल के प्रति कामना , आवेश और आसक्तिमय होता है;।
यह हमारी प्रकृति की ही इच्छा होती है; इसे हम अपनी इच्छा कहते हैं, पर हमारा अहंभावापन्न व्यक्तित्व तो प्रकृति की ही एक रचना है, यह हमारी मुक्त आत्मा , हमारी स्वाधीन सत्ता नहीं है और न हो सकता है । यह सारा प्रकृति के गुणों का कर्म है। यह कर्म तामसिक हो सकता है और तब हमारा व्यक्तित्व जड़त्व , वस्तुओं की यांत्रिक धारा के वशवर्ती और उसीसे संतुष्ट , किसी अधिक स्वाधीन कर्म और प्रभुत्व का कोई प्रबल प्रयास करने में सर्वथ आसमर्थ होता है। अथवा यह कर्म राजसिक हो सकता है और तब हमारा वयक्तित्व अशांत और कर्मप्रवण होता है, जो अपने - आपको प्रकृति पर लादना और उससे अपनी आवश्यकताएं और इच्छाएं पूरी करना चाहता है, पर यह नहीं देख पाता कि उसका यह प्रभुत्वाभास भी एक दासत्व ही है, क्योंकि उसकी आवश्यकताएं और इच्छाएं वे ही हैं जो प्रकृति की आवश्यकताएं और इच्छाएं हैं, और जब तक हम उनके वश में हैं तब तक हमें मुक्ति नहीं मिल सकती । अथवा यह कर्म सात्विक हो सकता है और तब हमारा वयक्तित्व प्रबुद्ध होता है , जो बुद्धि के द्वारा अपना जीवन बिताने और किसी शुभ, सत्य या सुन्दर के ईप्सित आदर्श को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है ; पर अब भी यह बुद्धि प्रकृति के रूपों के ही वश में होती है और ये आदर्श हमारे अपने ही व्यष्टिस्वरूप के परिवर्तनशील भाव होत हैं जिनमें अंततोगत्वा कोई ध्रुव नियम नहीं मिलता , न सदा के लिये संतोष ही मिलता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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