गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 203

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गीता-प्रबंध
21.प्रकृति का नियतिवाद

कर्म और आत्मज्ञान की एकता सिद्ध होने पर हमारा निवास जब उच्चतर आत्मा में हो जाता है तो हम प्रकृति की निम्नस्तरीण कर्मपद्धति से ऊपर उठ जाते हैं। तब हम प्रकृति और उसके गुणों के गुलाम नहीं रहते , बल्कि उन ईश्वर के साथ एक हो जाते हैं जो हमारी प्रकृति के स्वामी हैं, तब हम प्रकृति का उपयोग अपने अंदर की भगवदिच्छा को सिद्ध करने के लिये कर्मबंधन की अधीनता में पड़े बिना ही कर सकते हैं; क्योंकि हमारे अंदर जो महत्तर आत्मा है वह यही है, वह प्रकृति के कर्मो का अधीश्वर है और प्रकृति की विक्षुब्ध प्रतिक्रियाओं का उस पर कोई असर नहीं होता । इसके विपरीत , प्रकृति में बद्ध अज्ञानी जीव अपने उसी अज्ञान के कारण उसक गुणों में बंधता है, क्योंकि वहां वह सानंद अपने सत्य स्वरूप के साथ नहीं , प्रकृति के ऊपर अधिष्ठित जो भगवान् हैं उनके साथ ही नहीं, बल्कि मूर्खतावश और दुर्भाग्यवश अपनी अहंबुद्धि के साथ तदातकार हो जाता है।उसकी यह अहंबुद्धि कितना ही बड़ा स्वांग क्यों न रचे पर है प्रकृति के कार्य करने का एक छोटा सा अंग ही, एक मानसिक ग्रंथि मात्र, एक केन्द्र जिसे पकड़कर प्रकृति की कर्मधाराओं का खेल चलता रहता है। इस ग्रंथि को तोड़ना, अपने कर्मो का केन्द्र और भोक्ता इस अहं को न बने रहने देना , बल्कि परम दिव्य महान् आत्मा से सब कुछ प्राप्त करना और सब कुछ उसीको निवेदन करना - यही प्रकृति के गुणों के चंचल विक्षोभ से ऊपर उठने का रास्ता है।
कारण इस अवस्था का अर्थ त्रिगुण के विषम खेल में निवास करना नहीं जो ऐक्यहीन खोज और प्रयास है, एक विक्षोभ है, माया है बल्कि परम चेतना में निवास करना है, सम और एकीकृत दिव्य संकल्प एवं शक्ति के अंदर रहकर कर्म करना है, अहंबुद्धि जिसका अपकर्ष है।कुछ लोगों ने उन श्लोकों का , जिनमें गीता ने अहमात्मक जीव के प्रकृतिवश होने पर जोर दिया है, ऐसा अर्थ लगाया है मानो वहां ऐसे निरंकुश यांत्रिक नियतिवाद का निरूपण है जो इस जगत् में रहते किसी स्वाधीनता के लिये कोई गुंजायश नहीं छोड़ता। निश्चय ही उन श्लोकों की भाषा बहुत जोरदार है, और सुनिश्चित मालूम होती है। परंतु अन्य स्थानों की तरह यहां भी, गीता के विचार को उसके समग्र रूप में ग्रहण करना चाहिये और किसी एक वाक्य को, अन्य वाक्य के साथ के संबंध से सर्वथा अलग करके, सब कुछ नहीं मान लेना चाहिये । क्योंकि वास्तव में प्रत्येक सत्य, वह अपने - आपमें कितना ही दुरूस्त क्यों न हो, अन्य सत्यों से, जो से मर्यादित करते हुए भी परिपूर्ण करते हैं , अलग कर दिया जाये, तो बुद्धि को फंसाने वाला जाल और मन को भरमानेवाला मत बन जाता है, क्योंकि यथार्थ में प्रत्येक सत्य संमिश्रित पट का एक तंतु है और कोई भी तंतु उस समग्र पट से अलग नहीं किया जा सकता ।इसी तरह गीता में सब बातें एक - दूसरे से बुनी हुई हैं अतः उसकी हर बात को संपूर्ण कलेवर के साथ मिलाकर ही समझना चाहिये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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