गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 2

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गीता-प्रबंध
1.गीता से हमारी आवश्यकता और मांग

और, अभी तक हम लोगों की प्रवृत्ति ऐसी की बनी हुई है कि जिस किसी सदग्रंथ या सदुपदेश का हम लोग आदर करते हैं उसी को सर्वांग रूप से सर्वथा ब्रह्मवाक्य मानते औ सिर-आंखो पर रखते हैं तथा इसी रूप में उसे दूसरों पर भी जबर्दस्ती इस आग्रह के साथ लादना चाहते हैं कि यह सारे-का-सारा इसी रूप में स्वतः प्रमाण सनातन सत्य है, इसके एक अक्षर या मात्रा को भी इधर-से-उधर नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये भी उसी एक अपरिमेय प्रेरणा के अंश हैं।
इसलिये वेद, उपनिषद् अथवा गीता जैसे प्राचीन सदग्रंथ का विचार करने में प्रवृत्त होते हुए, आरंभ में ही यह बतला देना बहुत अच्छा होगा कि हम किस विशिष्ट भाव से इस कार्य में लग रहे हैं और हमारी समझ में इससे मानव-जाति तथा उसकी भावी संतति का क्या वास्तविक लाभ होगा। सबसे पहली बात है कि हम निश्चय ही उस परम सत्य को ढूंढ रहे हैं जो एक और सनातन है, जिससे अन्य सब सत्य पैदा होते हैं, जिसके प्रकाश में ही अन्य परम ज्ञान की योजना में अपना ठीक स्थान, व्याख्या और संबंध पाते हैं। परंतु इसी कारण वह परम सत्य किसी एक पैने सूत्र के अंदर बंद नहीं किया जा सकता अर्थात् यह संभव नहीं है कि वह परम सत्‍य पूरी तरह और पूर्ण रूप में किसी एक दर्शन-शास्त्र या किसी एक सद्ग्रंथ में प्राप्त हो जाये, न यही संभव है कि किसी एक गुरु, मनीषी, पैगंबर या अवतार के मुख से वह सदा के लिये सर्वांश में निकला हो। और यदि परम सत्य कि विषय में हमारी कल्पना या भावना कुछ ऐसी हो जिससे अपने से इतर संप्रदायों के आधारभूत सत्यों के प्रति अहिष्णु होकर हमें उनका बहिष्कार करना पड़े तो यह समझना चाहिये कि हमें उस परम सत्य का पूरा पता नहीं चला; कारण जब हम इस प्रकार अंध आवेश में आकर किसी सिद्धांत का बहिष्कार करने पर तुल जाते हैं तब इसका मतलब केवल इतना ही होता है कि हम उसको समझने या समझाने के पात्र नहीं हैं।
दूसरी बात यह है कि वह परम सत्य यद्यपि एक और सनातन है, परवह अपने-आपको काल में और मनुष्य की मन-बुद्धि में से होकर प्रकट करता है, और इसलिये प्रत्येक सद्ग्रंथ में दो तरह की बातें हुआ करती हैं, एक सामयिक, नश्वर, देश-विशेष और काल-विशेष से संबंध रखने वाली, और दूसरी शाश्वत, अविनश्वर, सब कालों और देशों के लिये समान रूप से उपयोगी और व्यवहार्य। फिर यह भी बात है कि परम सत्‍य के विषय में जब जो कुछ कहा जाता है वह जिस रूप में, जिस विचार-पद्धति और अनुक्रम से, जिस आध्यात्मिक और बौद्धिक सांचे में ढालकर कहा जाता है, उसके लिये जिन विशेष शब्दों का प्रयोग किया जाता है वे सब अधिकांश काल की परिवर्तनशील गति के अधीन होते हैं और उनकी शक्ति सदा एक-सी नहीं रहती, क्योंकि मानव-बुद्धि सदा बदलती रहती है; यह सदा ही विविध तथ्यों को एक-दूसरे से पृथक् करके देखती और फिर उन्हें एक साथ जुटाती हुई अपने विभाजन और समन्वयों का क्रम सदा बदला करती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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