गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 180

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गीता-प्रबंध
19.समत्व

ज्ञान , निष्कामता , नैव्र्यक्तिकता , समता , स्वतःस्थित आंतर शांति और आनंद , प्रकृति के त्रिगुण के मायाजाल से छुटकारा या कम - से - कम उससे ऊपर उठे रहने की स्थिति , ये सब मुक्त पुरूष के लक्षण हैं और इसलिये इन सब लक्षणों को उसके समस्त कर्मो में वर्तमान रहना चाहिये। ये आत्मा की अविचल शांति के आधार हैं , वह शांति जिसको आत्मा संसार की समस्त क्रियाओं , आघातों और शक्ति - संघर्षो से घिरा हुआ होने पर भी अपने अंदर बनाये रहती है। यह शांति समस्त क्षरभावों में वर्तमान ब्रह्म के सम अक्षर भाव को प्रतिभासित करती है और उस अविभाज्य और सम एकता की शांति है , जो संसार के समस्त बहुत्वों में सदा ओत - प्रोत रहती है। कारण जगत् के असंख्य भेदों और वैषम्यों के बीच समस्वरूप और सबको समरूप करनेवाली आत्मा ही आत्मा ही वह एकता है ; और आत्मा का यह समत्व ही एकमात्र वास्तविक समत्व है। जगत् के अन्य सब पदार्थो में केवल सादृश्य , समायोजन और संतुलन ही हो सकता है , किंतु जगत् के बडे़ -से - बडे़ सादृश्यों में भी वैषमय और असदृशता के भेद नजर आते हैं और जगत् में जो समायोजित संतुलन होता है वह विषम वजनों को मिलाकर तौल बराबर करने की प्रक्रिया से ही होता है।
इसीलिये गीता में कर्मयोग के जो तत्व बतलाये गये हें उनमें समत्व को इतना अधिक महत्व दिया गया है ; वह जगत् के साथ मुक्त संबंध को जोड़ने वाली गांठ है। आत्मज्ञान , निष्कामता , नैव्र्यक्तिकता , आनंद , निस्त्रैगुण्य , ये सब जब अंतर्मुख , अपने - आपमें लवलीन और निष्क्रिय हों तो इन्हें समत्व की कोई आवश्यकता नहीं होती ; क्योंकि वहां उन पदार्थो का मान ही नहीं जिनमें सम - विषम का द्वन्द्व उत्पन्न होता है। परंतु ज्यों ही आत्मा प्रकृतिकर्म के बहुत्वों , व्यक्तित्वों , विभेदों और विषमताओं का मान करके उनसे व्यवहार करने लगती है त्यों ही उसे अपने युक्त स्वरूप के इन अन्य लक्षणों को व्यवहार में लाने के लिये अपने अद्वितीय प्रकट चिहृ समत्व का आश्रय लेना पड़ता है। ज्ञान है एकमेवाद्वितीय के साथ एकता का बोध और इसे जगत् की नानाविध सत्ताओं और अस्तित्वों के साथ अपने संबंध में यह प्रकट करना होगा कि यह सबके साथ समान रूप से एक है। नैव्र्यक्तिकता है एक अक्षर आत्मा की संसार में अपने नानाविध व्यक्तित्वों की विभिन्नता से श्रेष्ठता और इसे जगत् के व्यक्तित्वों के व्यवहार में यह प्रकट करना होगा कि इसकी क्रिया सबके साथ समान रूप से और निष्पक्ष भाव से होती है , फिर विविध संबंधों और परिस्थितियों के अंतर्गत होने के कारण इस क्रिया के बाह्म रूप चाहे अनेक प्रकार के क्यों न हों। इसलिये श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि मेरा न कोई प्रिय है न किसी से द्वेष , मैं सबके लिये आत्माभाव में सम हूं ; फिर भी ईश्वर - प्रेमी मेरी कृपा को विशेष रूप से पाता है ; क्योंकि उसने मेरे साथ संबध स्थापित कर लिया है , और यद्यपि मैं सबका एक ही निष्पक्ष ईश्वर हूं फिर भी मुझसे जो जैसे मिलता है , और उससे मैं वैसे ही मिलता हूं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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