गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 172

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गीता-प्रबंध
18.दिव्य कर्मी

गीता ने अन्यत्र कहा है , योग ही है कर्म का सच्चा कौशल। पर यह सब होता है नैव्यक्तिक भाव से एक महती विश्व - ज्योति और शक्ति के द्वारा जो व्यष्टि - पुरूष की प्रकृति में से अपना कर्म करती है। कर्मयोगी इस बात को जानता है कि उसे जो शक्ति दी गयी है वह भगवत् - निर्दिष्ट फल को प्राप्त करने के उपयुक्त होगी , उसे जो कर्म करना है वह कर्म के पीछे जो भागवत चिंता है उसके अनुकूल होगा और उसका संकल्प , उसकी गतिशक्ति और दिशा गुप्त रूप से भागवत प्रज्ञा के द्वारा नियंत्रित होती रहेंगी - अवश्य की उसका संकल्प न तो इच्छा होगी न वासना , बल्कि वह सचेतन शक्ति का किसी ऐसे लक्ष्य की ओर नैव्र्यक्तिक प्रवाह होगा जो उसका अपना नहीं है । कर्म का फल वैसा भी हो सकता है जिसे सामान्य मनुष्य सफलता समझते हैं अथवा ऐसा भी हो सकता है जो उन्हें विफलता जान पड़े , पर कर्मयोगी इन दोनों में अभीष्ट की सिद्धि ही देखता है , और वह अभीष्ट उसका अपना नहीं , बल्कि उन सर्वज्ञ का होता है जो कर्म और फल , दोनों के संचालक हैं। कर्मयोगी विजय की खोज नहीं करता , वह तो यही इच्छा करता है कि भगवत्संकल्प और भगवदभिप्राय पूर्ण हो और यह पूर्णता आपातदृश्य पराजय के द्वारा भी उतनी ही साधित होती है जितनी जय के द्वारा और प्रायः जय की अपेक्षा पराजय के द्वारा यह कार्य विशेष बल के साथ संपन्न होता है।
अर्जुन को युद्ध के आदेश के साथ - साथ विजय का आस्वासन भी प्राप्त है ; पर यदि उसकी हार होनी होती तो भी उसका कर्तव्य युद्ध ही होता ; क्योंकि जिन क्रियाशक्तियों के समूह के द्वारा भगवान् का संकल्प सफल होता है उसमें तत्काल भाग लेने के लिये अर्जुन को उस समय यह युद्ध - कर्म सौंपा गया ।मुक्त पुरूष की व्यक्त्गित आशा - आकांक्षा नहीं हेाती ; वह चीजों को अपनी वैयक्त्कि संपत्ति जानकर पकड़े नहीं रहता ;भगवत्सकंल्प जो ला देता है वह उसे ग्रहण करता है , वह किसी वस्तु का लोभ नहीं करता , किसी से डाह नहीं करता ; जो कुछ प्राप्त होता है उसे वह राग - द्वेषरहित होकर ग्रहण करता है ; जो कुछ चला जाता है उसे संसार - चक्र में जाने देता है और उसके लिये दुःख या शोक नहीं करता , उसे हानि नहीं मानता। उसका हृदय और आत्मा पूर्णतया उसके वश में होते हैं, वे समस्त प्रतिक्रिया या आवेश से मुक्त होता है , वे बाह्म विषयों के स्पर्श से विक्षुब्ध नहीं होते । उसका कर्म मात्र शरीरिक कर्म होता है क्योंकि वाकी सब कुछ तो ऊपर से आता है , मानव स्तर पर पैदा नहीं होता , भगवान् पुरूषोत्तम के संकल्प , ज्ञान और आनंद का प्रतिबिंबमात्र होता है ; इसलिये वह कर्म और उसके उद्देश्यों पर जोर देकर अपने मन और हृदयों में वे प्रतिक्रियाएं नहीं होने देता जिन्हें हम षड़रिपु और पाप कहते है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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