गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 105

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गीता-प्रबंध
11.कर्म और यज्ञ

वह न तो संयम उद्देश्य को समझता है न उसकी वास्तविकता को , न अपने अंत:करण के मूल तत्वो को ही; इसलिये संयम के संबध में सबके सब प्रयत्न मिथ्या और व्यर्थ हो जाते हैं और वह मिथ्याचारी[१] कहलाता है। शरीर के कर्म , और मन से होने वाले कर्म भी अपने - आप में कुछ नहीं हैं, न वे बंधन है न बंधन के मूल कारण ही। मुख्य बात है प्रकृति की वह प्रबल शक्ति जो मन , प्राण और शरीर के महान क्षेत्र में अपनी ही चलायेगी, वह अपने ही रास्ते चलेगी: उसमें खतरनाक चीज है त्रिगुण की वह ताकत जिससे बुद्धि मोहित होती ओर भरमती है और इस तरह आत्मा को आच्छारिदत करती है। आगे चलकर हम देखेंगे कि कर्म और मोक्ष के संबंध में गीता का सारा रहस्य यही है त्रिगुण के व्यामोह और व्याकुलता से मुक्त हो जाओ , फिर कर्म हुआ करे, क्योंकि वह तो होता ही रहेगा; फिर वह कर्म चाहे जितना भी विशाल हो, समृद्ध हो या कैसा भी विकट और भीषण हो, उसका कुछ महत्व नहीं ,क्योंकि तब पुरूष को उसकी कोई चीज छू नहीं सकती , जीव नैष्कम्र्य की अवस्था को प्राप्त हो चुकता है। परंतु इस बृहत्तर तत्व का गीता अभी तुरंत वर्णन नहीं कर रही है ।
जब मन ही कारण है, अकर्म जब असंभव है, तब यही युत्कि - संगत , आवश्यक और उचित है कि आंतर और ब्राह्म कर्मो को संयम के साथ किया जाये । मन को चाहिये कि ज्ञानेनिद्रयों को मेधावी संकल्प के रूप में अपने वश में करे और कर्मन्द्रियों को उनके उचित कर्म में लगाये , लेकिन ऐसे कर्म में जो योग के रूप में किया जाये । पर इस आत्मसंयम का सारत्तव क्या है, कर्मयोग का अभिप्राय क्या है? कर्मयोग का अभिप्राय है अनासशक्ति कर्म करना , पर मन को इन्द्रियों के विषयों से और कर्मो के फलो से अलिप्त रखना । सम्पूर्ण अकर्म तो भय है , मन की उलझन है ,आत्मप्रवंचन है और असंभव है , बल्कि वह कर्म जो पूर्ण और स्वतंत्र हो, इद्रियों और आवेशों के वश होकर न किया गया हो- ऐसा निष्काम और आसक्तिरहित कर्म ही सिद्धि का प्रथम रहस्य है। इस प्रकार भगवान् कहते हैं कि नियत कर्म करो, मैनें यह कहा है कि ज्ञान , बुद्धि, कर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ है, पर इसका यह अभिप्राय नहीं कि कर्म से अकर्म श्रेष्ठ है , श्रेष्ठ तो अकर्म की अपेक्षा कर्म ही है, कारण ज्ञान का अर्थ कर्म संन्यास नहीं है, ज्ञान का अर्थ है समता , तथा वासना और इन्द्रियों के विषयों से अनासक्ति । और इसका अर्थ बुद्धि का उस आत्मा में स्थिर - प्रतिष्ठा होना जो स्वतंत्र है , प्रकृति के निम्न कर्मो के बहुत ऊपर है और वहीं से मन , इन्द्रियों और शरीर के कर्मो को आत्मज्ञान की तथा आध्यात्मिक अनुभूति के विशुद्ध निर्विषय आत्मानंद की शक्ति द्वारा नियत करता है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मेरे विचार में मिथ्याचारी का अर्थ पाखंडी नहीं हो सकता । जो अपने शरीर को इतने क्लेश पहुंचाता और भूखों मार डालता है, वह पाखंडी कैसे हो सकता है? वह भूला हुआ है, भ्रम में है, ‘विमूढात्मा’ है और उसका आचार मिथ्या और व्यर्थ है, अवश्य ही गीता का यहां यही अभिप्राय है।

संबंधित लेख

साँचा:गीता प्रबंध