अपोहवाद

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लेख सूचना
अपोहवाद
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 148
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1973 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक रामचंद्र पांडेय ।

अपोहवाद बौद्ध दर्शन में सामान्य का खंडन करके नामजात्याद्यसंयुत अर्थ को ही शब्दार्थ माना गया है। न्यायमीमांसा दर्शनों में कहा गया है कि भाषा सामान्य या जाती के बिना नहीं रह सकती। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग शब्द हो तो भाषा का व्यवहार नष्ट हो जाएगा। अनेकता में एकत्व व्यवहार भाषा की प्रवृत्ति का मूल है और इसी को तात्विक दृष्टि से सामान्य कहा जाता है। भाषा ही नहीं, ज्ञान के क्षेत्र में भी सामान्य का महत्व है क्योंकि यदि एक ज्ञान को दूसरे ज्ञान से पृथक्‌ माना जाए तो एक ही वस्तु के अनेक ज्ञानों में परस्पर कोई संबंध नहीं हो सकेगा। अतएव सामान्य या जाती को अनेक व्यक्तियों में रहनेवाली एक नित्य सत्ता माना गया है। यही सत्ता भाषा के व्यवहार का कारण है और भाषा का भी यही अर्थ है। बौद्धों के अनुसार सभी पदार्थ क्षणिक हैं अत: वे सामान्य की सत्ता नहीं मानते। यदि सामान्य नित्य है तो वह अनेक व्यक्तियों में कैसे रहता है? यदि सामान्य नित्य है तो नष्ट पदार्थ में रहनेवाले सामान्य का क्या होता है? अत: वह किसी अन्य वस्तु से संबंधित न होकर अपने आपमें ही विशिष्ट एक सत्ता है जिसे स्वलक्षण कहा जाता है। अनेक स्वलक्षण पदार्थों में ही अज्ञान के कारण एकता की मिथ्या प्रतीति होती है और चूंकि लोकव्यवहार के लिए ऐसी प्रतीति की आवश्यकता है इसलिए सामान्य लक्षण पदार्थ व्यावहारिक सत्य तो हैं किंतु परमार्थत: वे असत्‌ हैं। शब्दों का अर्थ परमार्थत: सामान्य के संबंध से रहित होकर ही भासित हाता है। इसी को अन्यापोह या अपोह कहते हैं। अपोह सिद्धांत के विकास के तीन स्तर माने जाते हैं। दिंडनाग के अनुसार शब्दों का अर्थ अन्याभाव मात्र होता है। शांतरक्षित ने कहा कि शब्द भावात्मक अर्थ का बोध कराता है, उसका अन्य से भेद ऊहा से मालूम होता है। रत्नकीर्ति ने अन्य के भेद से युक्त शब्दार्थ माना। ये तीन सिद्धांत कम से कम अन्य से भेद को शब्दार्थ अवश्य मानते हैं। यही अपोहवाद की विशेेषता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ