"महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 43 श्लोक 42-59" के अवतरणों में अंतर

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==त्रिचत्वारिंश अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)==
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: भीष्म पर्व: त्रिचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 42-59 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
  
कुरूनन्दन! इसीलिये आज मै तुम्हारे सामने नपुंसक के समान वचन बोलता हूं। कौरव! धृतराष्ट्र के पुत्रों ने धन के द्वारा मेरा भरण-पोषण किया है; इसलिये (तुम्हारे पक्ष में होकर) उनके साथ युद्ध करने के अतिरिक्त तुम क्या चाहते हो, यह बताओ। युधिष्ठिर बोले- महाबाहो! आप सदा मेरा हित चाहते हुए मुझे अच्छी सलाह दे और दुर्योधन के लिये युद्ध करें। मैं सदा के लिये यही वर चाहता हूं। भीष्म बोले- राजन्! कुरूनन्दन ! मैं यहां तुम्हारी क्या सहायता करूं? युद्ध तो मै इच्छानुसार तुम्हारे शत्रु की और से ही करूंगा; अतः बताओ, तुम क्या कहना चाहते हो? युधिष्ठिर बोले- पितामह! आप तो किसी से पराजित होनेवाले है नही, फिर मै आपको युद्ध में कैसे जीत सकूंगा ? यदि आप मेरा कल्याण देखते और सोचते है तो मेरे हित की सलाह दीजिए। भीष्म ने कहा-कुन्तीनन्दन! मै ऐसे किसी वीर को नही देखता, जो संग्राम भूमि में युद्ध करते समय मुझे पराजित कर सके। युद्धकाल में कोई पुरूष, साक्षात् इन्द्र ही क्यों न हो, मुझे परास्त नहीं कर सकता। युधिष्ठिर बोले- पितामह! आपको नमस्कार है। इसलिये अब मे आप से पुछता हूं, आप युद्ध में शत्रुओंद्वारा अपने मारे जाने का उपाय बताइये। भीष्म बोले- बेटा! जो समरभुमि मुझे जीत ले, ऐसे किसी वीर को मैं नही देखता हूं। अभी मेरा मृत्युकाल भी नही आया है; अतः अपने इस प्रश्न का उत्तर लेने के लिये फिर कभी आना। संजय बोले-कुरूनन्दन! तदनन्तर महाबाहु युधिष्ठिर ने भीष्म की आज्ञा को शिरोधार्य किया और पुनः उन्हें प्रणाम करते वे द्रोणाचार्य के रथ की और गये। सारी सेना देख रही थी और वे उसके बीच से होकर भाईयों सहित द्रोणाचार्य के पास जा पहुंचे। वहां राजा ने उन्‍हेंप्रणाम करके उनकी परिक्रमा की और उन दुर्जय वीर-शिरोमणि से अपने हित बात पूछी-‘भगवन् ! मै सलाह पूछता हूं, किस प्रकार आपके साथ निरपराध एवं पापरहित होकर युद्ध करूंगा ? विप्रवर ! आपकी आज्ञा से मैं समस्त शत्रुओं को किस प्रकार जीतूं? द्रोणाचार्य बोले-महाराज! यदि युद्ध का निश्चय कर लेने पर तुम मेरे पास नही आते तो मैं तुम्हारी सर्वथा पराजय होने के लिये शाप दे देता। निष्पाप युधिष्ठिर ! मैं तुमपर प्रसन्न हूं। तुमने मेरा बड़ाआदर किया। मैं तुम्हे आज्ञा देता हूं, शत्रुओं से लडों ओर विजय प्राप्त करो। महाराज! मैं तुम्हारी कामना पूर्ण करूंगा। तुम्हारा अभीष्ट मनोरथ क्या है ? वर्तमान परिस्थितिमें मैं तुम्हारी ओर से युद्ध तो कर नही सकता; उसे छोड़कर तुम बताओ, क्या चाहते हो ? पुरूष अर्थका दास है। अर्थ किसी का दास नही है। महाराज! यह सच्ची बात है मैं कौरवों के द्वारा अर्थ से बंधा हुआ हूं। इसीलिये आज नपुंसक की तरह तुमसे पुछता हूं कि तुम युद्ध के सिवा और क्या चाहते हो ? मै दुर्योधन के लिये युद्ध करूंगा; परन्तु जीत तुम्हारी ही चाहूंगा। युधिष्ठिर बोले- ब्रह्मन! आप मेरी विजय चाहे और मेरे हित की सलाह देते रहे; युद्ध दुर्योधन की और से ही करे। यही वर मैंने आप से मांगा है। द्रोणाचार्य ने कहा- राजन्! तुम्हारी विजय तो निश्चित है; क्योंकि साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे मंत्री है। मैं तुम्हें आज्ञा देता हूं, तुम युद्ध में शत्रुओं को उनके प्राणों से विमुक्त कर दोगे।
 
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
==संबंधित लेख==
 
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०६:५९, १७ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण