महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 43 श्लोक 22-41

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त्रिचत्वारिंश (23) अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: त्रिचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 22-41 का हिन्दी अनुवाद

‘ये राजा युधिष्ठिर भीष्म’ द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और शल्य-इन समस्त गुरूजनों से आज्ञा लेकर शत्रुओं के साथ युद्ध करेंगे। ‘सुना जाता है कि प्राचीन काल में जो गुरूजनों की अनुमति लिये बिना ही युद्ध करता था’, वह निश्चय ही उन माननीय पुरूषों की दृष्टि में गिर जाता था।‘जो शास्त्र की आज्ञा के अनुसार माननीय पुरूषों से आज्ञा लेकर युद्ध करता है,उसकी उस युद्ध में अवश्य विजय होती है ऐसा मेरा विश्वास है’। जब भगवान् श्रीकृष्ण ये बातें कह रहे थे, उस समय दुर्योधन की सेवा की और हुए युधिष्ठिर सब लोग अपलक नेत्रों से देख रहे थे। वही महान् हाहाकार हो रहा था और कही दूसरे लोग मुंहसे एक शब्द भी नही बोलकर चुप हो गये थे। युधिष्ठिर को दूर से ही देखकर दुर्योधन के सैनिक आपस में इस प्रकार बातचीत करने लगे- ‘यह युधिष्ठिर तो अपने कुल का जीता-जागता कलंक ही है’। ‘देखों, स्पष्ट ही दिखायी दे रहा है कि वह राजा युधिष्ठिर भयभीत की भांति भाईयों सहित भीष्मजी के निकट शरण मांगने के लिये आ रहा है। ‘पाण्डुनन्दन धनंजय, वृकोदर भीम तथा नकुल-सहदेव जैसे सहायकों के रहते हुए युधिष्ठिर के मन में भय कैसे हो गया।‘निश्चयही यह भूमण्डल में विख्यात क्षत्रियों के कुल में उत्पन्न नही हुआ है। इसका मानसिक बल अत्यन्त अल्प है; इसीलिये युद्ध के अवसर पर इसका ह्रदय इतना भयभीत है। तदनन्तर वे सब सैनिक कौरवों की प्रशंसा करने लगे और प्रसन्नचित्त हो हर्ष में भरकर अपने कपडे़ हिलाने लगे। प्रजानाथ! आपके वे सब योद्धा भाईयो तथा श्रीकृष्ण सहित युधिष्ठिर की विशेष रूप से निंदा करते थे। राजन्! आपके वे सब योद्धा भाईयों तथा श्रीकृष्ण सति युधिष्ठिर की विशेषरूप से निंदा करते थे। सब लोग मन-ही-मन सोचने लगे कि वह राजा क्या कहेगा और भीष्मजी क्या उत्तर देंगे ? युद्ध की श्लाघा रखनेवाले भीमसेन तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन भी क्या कहेंगे ? राजन् ! दोनों ही सेनाओं में युधिष्ठिर के विषय में महान् संशय उत्पन्न हो गया था। सब सोचते थे कि राजा युधिष्ठिर क्या कहना चाहते हैं। बाण और शक्तियों से भरी हुई शत्रु की सेना में घुसकर भाईयों से घिरे हुए युधिष्ठिर तुरंत ही भीष्मजी के पास जा पहुंचे। वहां जाकर उन पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिर ने अपने दोनों हाथों से पितामह के चरणों को दबाया और युद्ध के लिये उपस्थित हुए उन शांतनुनन्दन भीष्म से इस प्रकार कहा। युधिष्ठिर बोले- दुर्धर्ष वीर पितामह! मै आपसे आज्ञा चाहता हूं, मुझे आपके साथ युद्ध करना है । तात! इसके लिये आप आज्ञा और आर्शीवाद प्रदान करे। भीष्मजी बोले- पृथ्वीपते! भरतकुलनन्दन! महाराज! यदि उस युद्ध के समय तुम इस प्रकार मेरे पास नही आते तो मैं तुम्हें पराजित होने के लिये शाप दे देता। पाण्डुनन्दन! पुत्र! अब मै प्रसन्न हूं ओर तुम्हे आज्ञा देता हूं। तुम युद्ध करो ओर विजय पाओ। इसके सिवा और भी जो तुम्हारी अभिलाषा हो, वह इस युद्धभूमि में प्राप्त करो। पाथ! वर मांगो! तुम मुझसे क्या चाहते हो? महाराज! ऐसी स्थिति में तुम्हारी पराजय नही होगी। महाराज! पुरूष अर्थ का दास है, अर्थ किसी का दास नही है। यह सच्ची बात है। मै कौरवों के द्वारा अर्थ से बंधा हुआ हूं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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