"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 138 श्लोक 1-17" के अवतरणों में अंतर

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== एक सौ अड़त्तीसवाँ अध्‍याय: उद्योगपर्व (सेनोद्योग पर्व)==
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==अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)==
 
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत उद्योग पर्व: अष्टात्रिंशदधिकशततम  अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत उद्योगपर्व: एक सौ अड़त्तीसवाँ अध्याय: श्लोक 1- 27 का हिन्दी अनुवाद </div>
 
  
 
भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना  
 
भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना  
वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमजेय ! कुंती का कथन सुनकर महारथी भीष्म और द्रोण ने अपनी आज्ञा का उल्लंघन करने वाले दुर्योधन से इस प्रकार कहा - पुरुषसिंह ! कुंती ने श्रीकृष्ण के समीप जो अर्थयुक्त, धर्मसंगत, परम उत्तम एवं अत्यंत भयंकर बात कही है, उसे तुमने भी सुना ही होगा। कुरुनंदन ! कुंती के पुत्र श्रीकृष्ण की सम्मति के अनुसार वह सब कार्य करेंगे । अब राज्य लिए बिना वे कदापि शांत नहीं रह सकते। तुमने द्यूतक्रीड़ा के समय धर्म बंधन में बंधे हुए पांडवों को तथा कौरवसभा में द्रौपदी को भी भारी क्लेश पहुंचाया था, किन्तु उन्होनें तुम्हारा वह सब अपराध चुपचाप सह लिया। अब अस्त्रविद्या में पारंगत अर्जुन और युद्ध का दृढ़ निश्चय रखने वाले भीमसेन को पाकर गाँडीव धनुष, अक्षय बाणों से भरे हुए दो तरकस, दिव्य रथ और ध्वज को हस्तगत करके, बल और पराक्रम से सम्पन्न नकुल और सहदेव को युद्ध के लिए उद्यत देखकर तथा भगवान श्रीकृष्ण को भी अपनी सहायता के रूप में पाकर युधिष्ठिर तुम्हारे पूर्व अपराधों को क्षमा नहीं करेंगे। महाबाहो ! थोड़े ही दिनों पहले की बात है, परम बुद्धिमान अर्जुन ने विराटनगर के युद्ध में हम सब लोगों को परास्त कर दिया था और वह सब घटना तुम्हारी आँखों के सामने घटित हुई थी। कपिध्वज अर्जुन ने युद्ध में भयंकर कर्म करने वाले निवात कवच नामक दानवों को रुद्रदेवता संबंधी पाशुपत अस्त्र लेकर दग्ध कर डाला था। घोषयात्रा के समय कर्ण आदि योद्धा तुम्हारे साथ थे । तुम स्वयं भी रथ और कवच आदि से सम्पन्न थे, तथापि अर्जुन ने ही तुम्हें गन्धर्वों के हाथों से छुड़ाया था । उनकी शक्ति को समझने के लिए यही उदाहरण पर्याप्त होगा । अत: भरतश्रेष्ठ ! तुम अपने ही भाई पांडवों के साथ संधि कर लो। 'यह सारी पृथ्वी मौत की दाढ़ों के बीच में जा पहुंची है । तुम संधि के द्वारा इसकी रक्षा करो । तुम्हारे बड़े भाई युधिष्ठिर धर्मातमा, दयालु, मधुरभाषी और विद्वान हैं । तुम अपने मन का सारा कलुष यहीं धो-बहाकर उन पुरुषसिंह युधिष्ठिर की शरण में जाओ। जब पांडुपुत्र युधिष्ठिर यह देख लेंगे कि तुमने धनुष उतार दिया है और तुम्हारी टेढ़ी भौंहे शांत एवं सीधी हो गई हैं तथा तुम क्रोध त्याग कर अपनी सहज शोभा से सम्पन्न हो रहे हो, तब हमें विश्वास हो जाएगा कि तुमने हमारे कुल में शांति स्थापित कर दी। शत्रुदमन ! तुम अपने मंत्रियों के साथ पांडुकुमार राजा युधिष्ठिर के पास जाओ और पहले की भाँति उनके हृदय से लगकर उन्हें प्रणाम करो। भीम के बड़े भाई कुंतीपुत्र युधिष्ठिर तुम्हें प्रणाम करते देख सौहार्दवश अपने दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से लगा लें ॥ जिनके कंधे सिंह के समान और भुजाएँ बड़ी, गोलाकार तथा अधिक मोटी हैं, वे योद्धाओं में श्रेष्ठ भीमसेन भी तुम्हें अपनी दोनों भुजाओं में भरकर छाती से चिपका लें। शंख के समान ग्रीवा और कमलसृद्श नेत्रोवाले निद्राविजयी कुंतीपुत्र धनंजय तुम्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करें। इस भूतल पर जिनके रूप की तुलना कहीं नहीं है, वे अश्विनीकुमारों के पुत्र नरश्रेष्ठ नकुल– सहदेव तुम्हारे प्रति गुरुजनोचित प्रेमौर आदर का भाव लेकर तुम्हारी सेवा में उपस्थित हों। भूपाल ! तुम अभिमान छोड़कर अपने उन बिछुड़े हुए भाइयों से मिल जाओ और यह अपूर्व मिलन देखकर श्रीकृष्ण आदि सब नरेश अपने नेत्रों से आनंद के आँसू बहावें ॥ तदनंतर तुम अपने भाइयों के साथ इस सारी पृथ्वी का शासन करो और ये राजा लोग एक दूसरे से मिल-जुलकर हर्षपूर्वक यहाँ से पधारें। राजेन्द्र ! इस युद्ध से तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा । तुम्हारे हितैषी सुहृद जो तुम्हें युद्ध से रोकते हैं, उनकी वह बात सुनो और मानो, क्योंकि युद्ध छिड़ जाने पर क्षत्रियों का निश्चय ही विनाश दिखाई दे रहा है ॥20॥ वीर ! ग्रह और नक्षत्र प्रतिकूल हो रहे हैं । पशु और पक्षी भयंकर शब्द कर रहे हैं तथा नाना प्रकार के ऐसे उत्पात (अपशकुन) दिखाई देते हैं, जो क्षत्रियों के विनाश की सूचना देते हैं।  विशेषत: यहाँ हमारे घर में बुरे निमित्त दृष्टिगोचर होते हैं । जलती हुई उल्काएँ गिरकर तुम्हारी सेना को पीड़ित कर रही हैं। प्रजानाथ ! हमारे सारे वाहन अप्रसन्न एवं रोते-से दिखाई देते हैं । गीध तुम्हारी सेनाओं को चारों ओर से घेरकर बैठते हैं। इस नगर तथा राजभवन की शोभा अब पहले जैसी नहीं रही । सारी दिशाएँ जलती-सी प्रतीत होती हैं और उनमें अमंगलसूचक शब्द करती हुई गीदड़ियाँ फिर रही हैं। महाबहो ! तुम पिता, माता तथा हम हितैषियों का कहना मानो । अब शांतिस्थापन और युद्ध दोनों तुम्हारे ही अधीन हैं। शत्रुसूदन ! यदि तुम सुहृदों की बातें नहीं मानोगे तो अपनी सेना को अर्जुन के बाणों से अत्यंत पीड़ित होती देख कर पछताओगे। यदि हमारी ये बातें तुम्हें विपरीत जान पड़ती हैं तो जिस समय युद्ध में गर्जना करने वाले महाबली भीमसेन का विकट सिंहनाद और अर्जुन के गाँडीव धनुष की टंकार सुनोगे, उस समय तुम्हें ये बातें याद आएंगी।
 
  
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवादयानपर्व में भीष्म–द्रोण वाक्य विषयक एक सौ अड़त्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div>
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वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमजेय ! कुंती का कथन सुनकर महारथी भीष्म और द्रोण ने अपनी आज्ञा का उल्लंघन करने वाले दुर्योधन से इस प्रकार कहा - पुरुषसिंह ! कुंती ने श्रीकृष्ण के समीप जो अर्थयुक्त, धर्मसंगत, परम उत्तम एवं अत्यंत भयंकर बात कही है, उसे तुमने भी सुना ही होगा। कुरुनंदन ! कुंती के पुत्र श्रीकृष्ण की सम्मति के अनुसार वह सब कार्य करेंगे । अब राज्य लिए बिना वे कदापि शांत नहीं रह सकते। तुमने द्यूतक्रीड़ा के समय धर्म बंधन में बंधे हुए पांडवों को तथा कौरवसभा में द्रौपदी को भी भारी क्लेश पहुंचाया था, किन्तु उन्होनें तुम्हारा वह सब अपराध चुपचाप सह लिया। अब अस्त्रविद्या में पारंगत अर्जुन और युद्ध का दृढ़ निश्चय रखने वाले भीमसेन को पाकर गाँडीव धनुष, अक्षय बाणों से भरे हुए दो तरकस, दिव्य रथ और ध्वज को हस्तगत करके, बल और पराक्रम से सम्पन्न नकुल और सहदेव को युद्ध के लिए उद्यत देखकर तथा भगवान श्रीकृष्ण को भी अपनी सहायता के रूप में पाकर युधिष्ठिर तुम्हारे पूर्व अपराधों को क्षमा नहीं करेंगे। महाबाहो ! थोड़े ही दिनों पहले की बात है, परम बुद्धिमान अर्जुन ने विराटनगर के युद्ध में हम सब लोगों को परास्त कर दिया था और वह सब घटना तुम्हारी आँखों के सामने घटित हुई थी। कपिध्वज अर्जुन ने युद्ध में भयंकर कर्म करने वाले निवात कवच नामक दानवों को रुद्रदेवता संबंधी पाशुपत अस्त्र लेकर दग्ध कर डाला था। घोषयात्रा के समय कर्ण आदि योद्धा तुम्हारे साथ थे । तुम स्वयं भी रथ और कवच आदि से सम्पन्न थे, तथापि अर्जुन ने ही तुम्हें गन्धर्वों के हाथों से छुड़ाया था । उनकी शक्ति को समझने के लिए यही उदाहरण पर्याप्त होगा । अत: भरतश्रेष्ठ ! तुम अपने ही भाई पांडवों के साथ संधि कर लो। 'यह सारी पृथ्वी मौत की दाढ़ों के बीच में जा पहुंची है । तुम संधि के द्वारा इसकी रक्षा करो । तुम्हारे बड़े भाई युधिष्ठिर धर्मातमा, दयालु, मधुरभाषी और विद्वान हैं । तुम अपने मन का सारा कलुष यहीं धो-बहाकर उन पुरुषसिंह युधिष्ठिर की शरण में जाओ। जब पांडुपुत्र युधिष्ठिर यह देख लेंगे कि तुमने धनुष उतार दिया है और तुम्हारी टेढ़ी भौंहे शांत एवं सीधी हो गई हैं तथा तुम क्रोध त्याग कर अपनी सहज शोभा से सम्पन्न हो रहे हो, तब हमें विश्वास हो जाएगा कि तुमने हमारे कुल में शांति स्थापित कर दी। शत्रुदमन ! तुम अपने मंत्रियों के साथ पांडुकुमार राजा युधिष्ठिर के पास जाओ और पहले की भाँति उनके हृदय से लगकर उन्हें प्रणाम करो। भीम के बड़े भाई कुंतीपुत्र युधिष्ठिर तुम्हें प्रणाम करते देख सौहार्दवश अपने दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से लगा लें ॥ जिनके कंधे सिंह के समान और भुजाएँ बड़ी, गोलाकार तथा अधिक मोटी हैं, वे योद्धाओं में श्रेष्ठ भीमसेन भी तुम्हें अपनी दोनों भुजाओं में भरकर छाती से चिपका लें। शंख के समान ग्रीवा और कमलसृद्श नेत्रोवाले निद्राविजयी कुंतीपुत्र धनंजय तुम्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करें। इस भूतल पर जिनके रूप की तुलना कहीं नहीं है, वे अश्विनीकुमारों के पुत्र नरश्रेष्ठ नकुल– सहदेव तुम्हारे प्रति गुरुजनोचित प्रेमौर आदर का भाव लेकर तुम्हारी सेवा में उपस्थित हों।
  
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 137 श्लोक 1-32|अगला=महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 139 श्लोक 1-22}}
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 137 श्लोक 20-32|अगला=महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 138 श्लोक 18-27}}
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
<references/>
 
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==संबंधित लेख==
 
==संबंधित लेख==
{{महाभारत}}
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{{सम्पूर्ण महाभारत}}
  
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत उद्योगपर्व]]
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१५:१२, २४ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

अष्टात्रिंशदधिकशततम (138) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)

महाभारत उद्योग पर्व: अष्टात्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना

वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमजेय ! कुंती का कथन सुनकर महारथी भीष्म और द्रोण ने अपनी आज्ञा का उल्लंघन करने वाले दुर्योधन से इस प्रकार कहा - पुरुषसिंह ! कुंती ने श्रीकृष्ण के समीप जो अर्थयुक्त, धर्मसंगत, परम उत्तम एवं अत्यंत भयंकर बात कही है, उसे तुमने भी सुना ही होगा। कुरुनंदन ! कुंती के पुत्र श्रीकृष्ण की सम्मति के अनुसार वह सब कार्य करेंगे । अब राज्य लिए बिना वे कदापि शांत नहीं रह सकते। तुमने द्यूतक्रीड़ा के समय धर्म बंधन में बंधे हुए पांडवों को तथा कौरवसभा में द्रौपदी को भी भारी क्लेश पहुंचाया था, किन्तु उन्होनें तुम्हारा वह सब अपराध चुपचाप सह लिया। अब अस्त्रविद्या में पारंगत अर्जुन और युद्ध का दृढ़ निश्चय रखने वाले भीमसेन को पाकर गाँडीव धनुष, अक्षय बाणों से भरे हुए दो तरकस, दिव्य रथ और ध्वज को हस्तगत करके, बल और पराक्रम से सम्पन्न नकुल और सहदेव को युद्ध के लिए उद्यत देखकर तथा भगवान श्रीकृष्ण को भी अपनी सहायता के रूप में पाकर युधिष्ठिर तुम्हारे पूर्व अपराधों को क्षमा नहीं करेंगे। महाबाहो ! थोड़े ही दिनों पहले की बात है, परम बुद्धिमान अर्जुन ने विराटनगर के युद्ध में हम सब लोगों को परास्त कर दिया था और वह सब घटना तुम्हारी आँखों के सामने घटित हुई थी। कपिध्वज अर्जुन ने युद्ध में भयंकर कर्म करने वाले निवात कवच नामक दानवों को रुद्रदेवता संबंधी पाशुपत अस्त्र लेकर दग्ध कर डाला था। घोषयात्रा के समय कर्ण आदि योद्धा तुम्हारे साथ थे । तुम स्वयं भी रथ और कवच आदि से सम्पन्न थे, तथापि अर्जुन ने ही तुम्हें गन्धर्वों के हाथों से छुड़ाया था । उनकी शक्ति को समझने के लिए यही उदाहरण पर्याप्त होगा । अत: भरतश्रेष्ठ ! तुम अपने ही भाई पांडवों के साथ संधि कर लो। 'यह सारी पृथ्वी मौत की दाढ़ों के बीच में जा पहुंची है । तुम संधि के द्वारा इसकी रक्षा करो । तुम्हारे बड़े भाई युधिष्ठिर धर्मातमा, दयालु, मधुरभाषी और विद्वान हैं । तुम अपने मन का सारा कलुष यहीं धो-बहाकर उन पुरुषसिंह युधिष्ठिर की शरण में जाओ। जब पांडुपुत्र युधिष्ठिर यह देख लेंगे कि तुमने धनुष उतार दिया है और तुम्हारी टेढ़ी भौंहे शांत एवं सीधी हो गई हैं तथा तुम क्रोध त्याग कर अपनी सहज शोभा से सम्पन्न हो रहे हो, तब हमें विश्वास हो जाएगा कि तुमने हमारे कुल में शांति स्थापित कर दी। शत्रुदमन ! तुम अपने मंत्रियों के साथ पांडुकुमार राजा युधिष्ठिर के पास जाओ और पहले की भाँति उनके हृदय से लगकर उन्हें प्रणाम करो। भीम के बड़े भाई कुंतीपुत्र युधिष्ठिर तुम्हें प्रणाम करते देख सौहार्दवश अपने दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से लगा लें ॥ जिनके कंधे सिंह के समान और भुजाएँ बड़ी, गोलाकार तथा अधिक मोटी हैं, वे योद्धाओं में श्रेष्ठ भीमसेन भी तुम्हें अपनी दोनों भुजाओं में भरकर छाती से चिपका लें। शंख के समान ग्रीवा और कमलसृद्श नेत्रोवाले निद्राविजयी कुंतीपुत्र धनंजय तुम्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करें। इस भूतल पर जिनके रूप की तुलना कहीं नहीं है, वे अश्विनीकुमारों के पुत्र नरश्रेष्ठ नकुल– सहदेव तुम्हारे प्रति गुरुजनोचित प्रेमौर आदर का भाव लेकर तुम्हारी सेवा में उपस्थित हों।


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