कुमारपाल

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०७:२५, ४ सितम्बर २०११ का अवतरण (Text replace - "Category:इतिहास कोश" to "Category:इतिहास ")
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
लेख सूचना
कुमारपाल
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 1
भाषा हिन्दी देवनागरी
लेखक ए. के. मजुमदार, च . राय
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
स्रोत ए. के. मजुमदार : दि चालुक्याज आवॅ अन्हिलवाड; हे . च . राय : डाइनेस्टिक हिस्ट्री आवॅ नार्दन इंडिया, भाग २।
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक विशुद्धनंद पाठक

कुमारपाल (११४३-११७४ ई.) अन्हिलपाटन (अन्हिलवाड), गुजरात के चालुक्य वंश का शासक। ११४३ ईं में वह गद्दी पर बैठा और लगभग ३० वर्षों तक शासन किया। उसके पिता का नाम त्रिभुवनपाल और माता की काश्मीरादेवी था।

जैनियों की दृष्टि में वह गुजरात का सबसे बड़ा शासक था। उसके समकालीन तथा कुछ काल बाद के जैन ग्रंथों एवं अभिलेखों से उसके व्यक्तिगत और राजनीतिक इतिहास की अच्छी जानकारी प्राप्त होती है। उनमें उसके दिग्विजय और उसके अनेक युद्धों का उल्लेख है शांकभरी के चाहमान शासक अर्णोराज के विरुद्ध किया गया युद्ध इनमें प्रमुख है। उन दोनो के बीच संभवत दो युद्ध हुए-एक चालुक्य राजगद्दी पर कुमारपाल के प्रतिद्वंदी बाहड को बिठाने के लिए किए गए अर्णोराज के प्रयत्न के कारण और दूसरा अर्णोराज द्वारा अपनी रानी और कुमारपाल कि बहिन देवल्लदेवी के साथ किए गए अपमानजनक व्यवहार के प्रतिकार के लिए। चाहमानों ने परमारों से मिलकर कुमारपाल के विरुद्ध उपद्रव कराने का प्रयास किया था किंतु वे सफल न हो सके। नड्डुल के चाहमान, मालवा और आबु के परमार, सौराष्ट्र के संभवत आभीरवंशी राजा सुंवर तथा कोंकण के राजा मल्लिकार्जुन के विरुद्ध भी उसने युद्ध किए। इन सभी युद्धों में, केवल कोंकणराज के विरुद्ध किए गए आक्रमण को छोड़ कर कुमारपाल की नीति मुख्यत प्रतिरक्षात्मक ही थी।

कुमारपाल अपने शांतिकालीन कार्यों के लिए अधिक प्रसिद्ध हैं। जैनधर्म मे दीक्षित हो जाने पर भी उसने अपने कुल के परंपरागत शैवधर्म के प्रति कभी अरुचि अथवा शत्रुता नहीं दिखाई और भारतीय राजाओं की सच्ची धर्मसहिष्णु परंपरा में अनेक हिंदू मंदिरों का निर्माण तथा जीणोंद्धार कराया। उसके सबसे मुख्य बात यह थी कि उसने अपुत्रक मरनेवाले लोगों की संपत्ति राज्य द्वारा अपहरण की प्रथा बंद कर दी। शासक की दृष्टि से वह परिश्रमी और प्रजा का सुखचिंतक था। ११७४ ई. के लगभग रोगग्रस्त होने से उनकी मृत्यु हुई।

टीका टिप्पणी और संदर्भ