महाभारत वन पर्व अध्याय 168 श्लोक 69-86

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अष्टषष्टयधिकशततम (168) अध्‍याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

महाभारत: वन पर्व: अष्टषष्टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 69-86 का हिन्दी अनुवाद

'तुम उसे देनेकी प्रतिज्ञा करो, तब मैं अपने महान् कार्यको तुम्हें बताउंगा। 'राजन्! यह सुनकर मैंने देवराजसे कहा-'भगवन्! जो कुछ मै कर सकता हूं, उसे किया हुआ ही समझिये। 'नरेश्वर! तब बल और वृत्रासुरके शत्रु इन्द्रने मुझसे हंसते हुए कहा- 'वीरवर! तीनों लोकोंमें ऐसा कोई कार्य नहीं हैं, जो तुम्हारे लिये असाध्य हो। निवातकवच नामक दानव मेरे शत्रु हैं। 'वे समुद्रके भीतर दुर्गम स्थानका आश्रय लेकर रहते है। उनकी संख्या तीन करोड़ बतायी जाती है और उन सभीके रूप, बल और तेज एक समान है। कुन्तीनन्दन! तुम उन दानवोंका संहार कर डालो। इतने से ही तुम्हारी गुरू-दक्षिणा पूरी हो जायगी। 'ऐसा कहकर इन्द्रने मुझे एक अत्यन्त कान्तिमान् दिव्य रथ प्रदान किया, जिसे मातलि जोतकर लाये थे। उसमें मयूरोंके समान रोमवाले घोड़े जुते हुए थे। रथ आ जानेपर देवराजने यह उत्तम किरीट मेरे मस्तकपर बांध दिया। फिर उन्होंने मेरे स्वरूपके अनुरूप प्रत्येक अंगमें आभूषण पहना दिये। इसके बाद यह अभेद्य उत्तम कवच धारण कराया, जिसका स्पर्श तथा रूप मनोहर है। तत्पश्चात् मेरे गाण्डीव धनुषमें उन्होंने यह अटूट प्रत्यंचा जोड़ दी। इस प्रकार युद्धकी सामग्रियोंसे सम्पन्न होकर उस तेजस्वी रथके द्वारा में संग्रामके लिये प्रस्थित हुआ, जिसपर आरूढ़ होकर पूर्वकालमें देवराजने विरोचनकुमार बलिको परास्त किया था। महाराज! तब उस रथकी घर्घराहटसे सजग हो सब देवता मुझे देवराज समझकर मेरे पास आये और मुझे देखकर पूछने लगे- 'अर्जुन! तुम क्या करनेकी तैयारी में हों ? तब मैंने उनसे सब बातें बताकर कहा- 'मैं युद्धमें यही करने जा रहा हूं। आपको यह ज्ञात होना चाहिये कि मैं निवातकवच नामक दानवोंके वधकी इच्छासे प्रस्थित हुआ हूं। अतः निष्पाप एवं महाभाग देवताओ! आप मुझे ऐसा आशीर्वाद दें, जिससे मेरा मंगल हो। राजन्! तब वे देवतालोग प्रसन्न हो देवराज इन्द्रकी भांति श्रेष्ठ एंव मधुर वाणीद्वारा मेरी स्तुति करते हुए बोले- इस रथके द्वारा इन्द्रने युद्धमें शम्बरासुरपर विजय पायी है। नमुचि, बल, वृत्र, प्रहलाद, और नरकासुरको परास्त किया है। 'इनके सिवा अन्य बहुत-से दैत्योंको भी इस रथको द्वारा पराजित किया हैं, जिनकी संख्या सहस्त्रों, लाखों और अरबोंतक पहुंच गयी है। 'कुन्तीनन्दन! जैसे पूर्वकालमें सबको वशमें करनेवाले इन्द्रने असुरोंपर विजय पायी थी, उसी प्रकार तुम भी इस रथके द्वारा युद्धमें पराक्रम करके निवातकवचोंको परास्त करोगे। 'यह श्रेष्ठ शंक है, जिसे बजानेसे तुम्हें दानवोंपर विजय प्राप्त हो सकती हैं। महामना इन्द्रने भी इसके द्वारा सम्पूर्ण लोकोंपर विजय पायी है। वही यह शंक है, जिसे मैंने अपनी विजयके लिये ग्रहण किया था। देवताओंने उसे दिया था, इसलिये इसका नाम देवदत है। शंख लेकर देवताओंके मुखसे स्तुति इच्छासे अत्यन्त भयंकर दानवोंके नगरकी ओर चल सुनता हुआ मैं कवच, बाण तथा धनुषसे सज्जित हो युद्धकी दिया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत अर्जुनवाक्यविषयक एक सौ अड़सवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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