महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 26 श्लोक 63-87

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छब्‍बीसवां अध्‍याय: अनुशासनपर्व (दानधर्मपर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: छब्‍बीसवां अध्याय: श्लोक 40-73 का हिन्दी अनुवाद

जो पुरूष एक हजार युगोंतक एक पैरसे खड़ा होकर तपस्या करता है और जो एक मासतक गंगातटपर निवास करता हैं, वे दोनों समान हो सकते हैं अथवा यह भी सम्भव है कि समान न हों। जो मनुष्य दस हजार युगोंतक नीचे सिर करके वृक्षमें लटका रहे और जो इच्छानुसार गंगाजीके तटपर निवास करे, उन दोनोंमें गंगाजीपर निवास करने वाला ही श्रेष्ठ है। द्विजश्रेष्ठ! जैसे आगमें डाली हुई रूई तुरंत जलकर भस्म हो जाती है, उसी प्रकार गंगामें गोता लगानेवाले मनुष्यके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। इस संसारमें दुःखसे व्याकुलचित होकर मैंने लिये कोई आश्रय ढूंढ़नेवाले समस्त प्राणियोंके लिये गंगाजीके समान कोई दूसरा सहारा नहीं है।। जैसे गरूड़को देखते ही सारे सर्पोंके विष झड़ जाते हैं, उसी प्रकार गंगाजीके दर्शनमात्रसे मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है। जगत् में जिनका कहीं आधार नहीं है; तथा जिन्होंने धर्मकीशरण नहीं ली है, उनका आधार और उन्हें शरण देनेवाली श्रीगंगाजी ही हैं। वे ही उसका कल्याण करनेवाली तथा कवचकी भांति उसे सुरक्षित रखनेवाली है। जो नीच मानव अनेक बड़े-बड़े अमंगलकारी पापकर्मोंसे ग्रस्त होकर नरकमें गिरनेवाले हैं, वे भी यदि गंगाजीकी शरणमें आ जाते हैं तो ये मरने के बाद उनका उद्धार कर देती है। बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण ! जो लोग यदा गंगाजीकी यात्रा करते हैं, उनपर निश्चय ही इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता तथा मुनिलोग पृथक्-पृथक् कृपा करते आये हैं। विप्रवर! विनय और सदाचारसे हीन अमंगलकारी नीच मनुष्य भी गंगाजीकी शरणमें जानेपर कल्याणस्वरूप हो जाते है। जैसे देवताओंका अमृत, पितरोंको स्वधा और नागोंको सुधा तृप्त करती हैं, उसी प्रकार मनुष्योंके लिये गंगाजल ही पूर्ण तृप्ति का साधन है। जैसे भूखसे पीड़ित हुए बच्चे माताके पास जाते हैं, उसी प्रकार कल्याणकी इच्छा रखनेवाले प्राणी इस जगत् में गंगाजीकी उपासना करते है। जैसे ब्रह्मलोक सब लोकोंसे श्रेष्ठ बताया जाता है, वैसे ही स्नान करनेवाले पुरूषोंके लिये गंगाजी ही सब नदियोंमें श्रेष्ठ कही गयी है। जैसे धेनुस्वरूपा पृथ्वी उपजीवी देवता आदिके लिये आदरणीय है, उसी प्रकार इस जगत् में गंगा समस्त उपजीवी प्राणियोंके लिये आदरणीय हैं। जैसे देवता सत्र आदि यज्ञोंद्वारा चन्द्रमा और सूर्यमें स्थित अमृतसे आजीविका चलाते हैं, उसी प्रकार संसारके मनुष्य गंगाजल सहारा लेते है। गंगाजीके तटसे उड़े हुए बालुका-कणोंसे अभिषिक्त हुए अपने शरीरको ज्ञानी पुरूष स्वर्गलोकमें स्थित हुआ-सा शोभासम्पन्न मानता है। जो मनुष्य गंगाके तीरकी मिटटी अपने मस्तक में लगाता है वह अज्ञानान्धकारका नाष करनेके लिये सूर्यके समान निर्मल स्वरूप धारण करता है। गंगाकी तरंगमालाओंसे भीगकर बहनेवाली वायु जब मनुष्यके शरीरका स्पर्श करती है, उसीसमय वह उसके सारे पापोंको नष्ट कर देती है। दुव्र्यसनजनित दुःखोंसे संतप्त होकर मरणासन्न हुआ मनुष्य भी यदि गगाजीका दर्शन करे तो उसे इतनी प्रसन्नता होती है कि उसकी सारी पीड़ा तत्काल नष्ट हो जाती है। हंसोंकी मीठी वाणी, चक्रवाकोंके सुमधुर शब्द तथा अन्यान्य पक्षियोंके कलरवोंद्वारा गंगाजी गन्धर्वोंसे होड़ लगाती है तथा अपने उंचे-उंचे तटोंद्वारा पर्वतोंके साथ स्पर्धा करती है। हंस आदि बहुसंख्यक एवं विविध पक्षियोंसे घिरी हुई तथा गौओंके समुदायसे व्याप्त हुई गंगाजीको देखकर मनुष्य स्वर्गलोकको भी भूल जाता है। गंगाजीके तटपर निवास करनेसे मनुष्योंको जो परम प्रीति-अनुपम आनन्द मिलता है वह स्वर्गमें रहकर सम्पूर्ण भोगोंका अनुभव करनेवाले पुरूषको भी नहीं प्राप्त हो सकता। मन, वाणी और क्रियाद्वारा होने वाले पापोंसे ग्रस्त मनुष्य भी गंगाजीका दर्शन करने मात्रसे पवित्र हो जाता है-इसमे मुझे संशय नहीं है। गंगाजीका दर्शन, उनके जलका स्पर्श तथा उस जलके भीतर स्नान करके मनुष्य सात पीढ़ी पहले के पूर्वजोंका और सात पीढ़ी आगे होनेवाली संतानोंका तथा इनसे भी उपरके पितरों और संतानोंद्वारा उद्धार कर देता है। जो पुरूष गंगाजीका माहात्म्य सुनता, उनके तटपर जानेकी अभिलाशा रखता, उनका दर्शन करता, जल पीता, स्पर्श करता तथा उनके भीतर गोते लगाता है, उसके दोनों कुलोंका भगवती गंगा विशेषरूपसे उद्धार कर देती है। गंगाजी अपने दर्शन, स्पर्श, जलपान तथा अपने गंगानामके कीर्तनसे सैकड़ो और हजारों पापियोंको तार देती है। जो अपने जन्म, जीवन और वेदाध्ययनको सफल बनाना चाहता हो वह गंगाजीके पास जाकर उनके जलसे देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करे। मनुष्य गंगास्नान करके जिस अक्षय फलको प्राप्त करता है उसे पुत्रोंसे, धनसे तथा किसी कर्मसे भी नहीं पा सकता। जो सामथ्र्य होते हुए भी पवित्र जलवाली कल्याणमयी गंगाका दर्शन नहीं करते वे जन्मके अन्धों, पंगुओं और मुर्दोंके समान है। भूत, वर्तमान और भविष्यके ज्ञाता महर्षि तथा इन्द्र आदि देवता भी जिनकी उपासना करते हैं, उन गंगाजीका सेवन कौन मनुष्य नहीं करेगा ? ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी और विद्वान् पुरूष भी जिनकी शरण लेते है, ऐसी गंगाजी का कौन मनुष्य आश्रय नहीं लेगा ? जो साधु पुरूषोंद्वारा सम्मानित तथा संयतचित मनुष्य प्राण निकलते समय मन-ही-मन गंगाजीका स्मरण करता है, वह परम उत्‍तम गतिको प्राप्त कर लेता है। जो पुरूष यहा जीवनपर्यन्त गंगाजीकी उपासना करता है उसे भयदायक वस्तुओंसे, पापोंसे तथा राजासे भी भय नहीं होता। भगवान महेश्वरने आकाशसे गिरती हुई परम पवित्र गंगाजीको सिरपर धारण किया, उन्हींका वे स्वर्गमे सेवन करते है। जिन्होंने तीन निर्मल मार्गोंद्वारा आकाश, पाताल तथा भूतल-इन तीन लोकोंका अलंकृत किया है उन गंगाजीके जलका जो मनुष्य सेवन करेगा वह कृतकृत्य हो जायगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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